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________________ प्रवचन सत्य की छाँव में आचार्य श्री विद्यासागर जी ___ यदि कोई सिद्धान्त का गलत अर्थ निकालता है, | की ओट में छुपा देता है। यही विचारने की बात है, तो उससे बिना पूछे ही उसका निराकरण करना चाहिए। आचार की बात है, कौन नहीं जानता कि चोरी करना यदि उस समय वह समन्तभद्राचार्य जैसी गर्जना नहीं | गलत है। लेकिन वह चोर भी जानता हुआ डरता है, करता है, तो उसका सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञान में परिणत हो पीछे मुड़कर देखता है कि पुलिस आ रही है और मेरे जायेगा। जिस प्रकार वातावरण से प्रभावित होकर के लिए पकड़ेगी। इस प्रकार वह भयभीत होता हुआ चोरी गिरगिट अपना रंग बदलता रहता है, उसी प्रकार आजकल | को अच्छा नहीं समझता, फिर भी लत पड़ गई है, इसलिये के वक्ता भी स्वार्थसिद्धि की वजह से आगम के अर्थ | वह चोरी को छोड नहीं पा रहा है। विषयों की चपेट को बदलते रहते हैं। | में आया हुआ प्राणी, विषयों को छोड़ नहीं पाता, यह लोभ के वशीभूत हुआ प्राणी सत्य धर्म को सही- | अज्ञान है। अज्ञान का अर्थ यह नहीं कि वहाँ पर ज्ञान सही उदघाटित नहीं कर सकता। सत्य का अर्थ है अहिंसा। का अभाव है। ज्ञान तो है, लेकिन पुरा नहीं है, और असत्य का अर्थ है हिंसा, सत्य का पक्ष कभी फालतू | सही नहीं है। इसलिये येन केन प्रकारेण विषयों की नहीं जाता। पूर्ति के लिए कदम उठाता है। लौकिक क्षेत्र में यह प्रसिद्ध है कि जिस रोग पक्षपात! के आवागमन से शरीर का पक्ष विकल हो जाता है, यह एक ऐसा शरीर का एक भाग काम नहीं करता, उसे वैद्य लोग जलप्रपात है पक्षाघात कहते हैं। मैं समझता हूँ कि पक्षाघात स्वयं पक्षपात जहाँ पर से युक्त है, क्योंकि वह शरीर के मात्र आधे हिस्से को सत्य की सजीव माटी ही निष्क्रिय बनाता है। पक्षपात के आने से उसकी चाल टिक नहीं सकती में, उसकी दृष्टि में, उसकी प्रत्येक क्रिया में अन्तर बह जाती आ जाता है। जहाँ पक्षपात आ जाता है, वहाँ भीतर की पता नहीं कहाँ ? बात भीतर रह जाती है। वह जाती किसी व्यक्ति से पूछा जाये कि तुमने चोरी की असत्य के अरगढ़ है? तो उसका मन पहले कहता है कि 'हूँ', फिर बाद विशाल पाषाण खण्ड में जब उसे बाध्य किया जाता है, तो यह 'परावाक् अधगढ़े टेड़े-मेड़े पश्यन्ति' के रूप में परिवर्तित हो जाती है, उस समय अपने धुन पर अड़े भी परावाक् बिल्कुल शुद्ध रहती है, पश्यन्ति भी बिल्कुल शोभित होते। ठीक रहती है। किन्तु! मध्यमा के ऊपर ज्यों ही चढ़ना - 'डूबो मत, लगाओ डुबकी' से प्रारम्भ कर देता है, त्योंही उसके लिए एक आज्ञा आ पक्षपात एक ऐसा जलप्रपात है, जो सत्य की माटी जाती है, और जिह्वा बोलना भी चाहती है, लेकिन उसका को टिकने नहीं देता। सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरिजी में हमने देखा गला घुटकर-सा रह जाता है, वह कहती है कि जैसा था, तो वहाँ टेड़े-मेड़े विशाल पाषाण खण्ड ही मात्र हुआ वैसा नहीं, जो मैं कह रहा हूँ, वह बोलना है। मिले, माटी के दर्शन तो वहाँ पर हुए ही नहीं। असत्यक्यों तुमने चोरी की है? तो वह कहता है कि हूँ... | जीवन के पास जाते ही घबराहट होने लगती है। कहीं हूँ.... नहीं, यह निकल गया। इसका अर्थ है, हाँ फिर | ऐसा न हो कि सत्य, असत्य रूप में परिणत हो जाए उसके उपरान्त नहीं करता है। आप कितनी भी पिटाई | आज सुबह ही एक सूत्र में आया थाकीजिए, कड़ा से कड़ा दण्ड दीजिए वह सत्य को असत्य | बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च। त.सू.अ.५-सू-३७ अगस्त 2008 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524330
Book TitleJinabhashita 2008 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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