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वाहनविसर्जनयोरभावेन...।" (संस्काररत्नमाला / पृ.२७ / उपासकाध्ययन / प्रस्तावना / पृ. ५६ ) ।
देवपूजा के विषय में जिनागम का सार यह है कि जिस क्षेत्र और जिस काल में साक्षात् जिन उपस्थित नहीं हैं, उस क्षेत्र और उस काल में जिनबिम्ब ही पूजनीय है, क्योंकि उसकी पूजा के द्वारा ही जिन की पूजा संभव होती है। जिनबिम्ब के अतिरिक्त अन्य किसी का भी बिम्ब पूजनीय नहीं है, भले ही वह जिनशासन-देवताओं का बिम्ब हो । जिनबिम्ब के दर्शन ही सम्यक्त्वोत्पत्ति एवं संवर- निर्जरा के कारण हैं। जैसे जिनशासन- देव-देवियों के बिम्ब पूज्य नहीं है, वैसे ही जिन पाषाण, अक्षत, लवंग, पुष्प आदि में जिनबिम्ब नहीं है, वे भी पूज्य नहीं हैं। जिनबिम्ब भी वही पूजनीय है, जो दिगम्बरजैन पंचकल्याणक प्रतिष्ठा विधि द्वारा प्रतिष्ठित हो, यदि अप्रतिष्ठित है, तो जिनबिम्ब होते हुए भी अपूज्य है । श्रुतसागरसूरि ने लिखा है कि यापनीय आदि पंचजैनाभासों के द्वारा प्रतिष्ठित नग्न मूर्ति (जिनबिम्ब ) भी वंदनीय एवं पूजनीय नहीं है
'या च पञ्चजैनाभासैरञ्चलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता सा न वन्दनीय, न चार्चनीयाः ।' (बोध- पाहुड / टीका /गा. १०) ।
पं० बनारसीदास जी वाणारसीविलास में लिखते हैं कि आगम में कहा गया है- 'जिनबिम्ब वही है, जो सर्वथा जिनसदृश हो । यदि उसमें रंचमात्र भी दोष हो अर्थात् जिनरूप से रंचमात्र भी भिन्नता हो, तो वह जिनबिम्ब नहीं होता, अतः वन्दनीय नहीं है ।' यथा
जिनप्रतिमा जिनसारिसी, कही जिनागममाहिं ।
रंचमात्र दूषण लगे, वंदनीक सो नाहिं ॥
प्रतिष्ठत होने के बाद खण्डित हुआ जिनबिम्ब भी जिनसदृश न रहने के कारण पूजनीय नहीं होता । तब ठौने पर चढ़ाये गये पुष्पादि में तो जिनरूप का तिलमात्र भी सादृश्य नहीं होता, न ही उनमें पंचकल्याणक - विधि द्वारा जिनत्व की प्रतिष्ठा की गयी होती है, अतः वे जिनबिम्ब न होने के कारण कदापि वन्दनीय एवं पूजनीय नहीं हैं। जैसे जिनशासन - देव - देवियों की मूर्ति में जिनत्व की स्थापना नहीं की जा सकती, वैसे ही पाषाण, अक्षत, पुष्प, लवंग, बादाम, श्रीफल आदि में भी जिनत्व की स्थापना नहीं की जा सकती । अतः ठौने पर चढ़ाये जाने पर भी पुष्पादि अवन्द्य और अपूज्य होते हैं।
शिष्टाचार
आचार्य महाराज कभी किसी से आने-जाने या ठहरने के बाबत् कोई चर्चा नहीं करते। एक बार महाराज ने किसी से कहा कि महाराज आप अपने पास आने-जाने वाले व्यक्ति से बैठने के लिए भी नहीं कहते। अच्छा नहीं लगता । इतना शिष्टाचार तो साधु के द्वारा होना चाहिए ।
आचार्य महाराज ने सारी बात बड़े ध्यान से सुनी और मुस्कराकर बोले- 'भैया, यह स्थान मेरा तो है नहीं, जो यहाँ बैठने के लिए कहूँ। साथ ही आने-जाने की अनुमोदना भी मैं कैसे कर सकता हूँ, क्योंकि आने-जाने वाला तो वाहन का उपयोग करेगा, जिसका मैं त्याग कर चुका हूँ और मान लो, वह व्यक्ति मात्र दर्शन करके जाना चाहता हो तो मेरे कहने से उसे जबरदस्ती बैठना पड़ेगा।'
आचार्यों का उपदेश तो साधु के लिए केवल इतना ही है कि वह आनेवाले व्यक्तियों को हाथ की अभय - मुद्रा के द्वारा कल्याण का संकेत दे और मुख पर प्रसाद बिखरे दे । यही शिष्टाचार पर्याप्त है । यहीं साधु की विनय है। कितना अनासक्त और सुविचारित है उनका शिष्टाचार |
आत्मान्वेषी (मुनि श्री क्षमासागर जी) से साभार
अग्रस्त 2008 जिनभाषित
रतनचन्द्र जैन
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