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जिज्ञासा- तैजस शरीर की उत्कृष्ट स्थिति ६६ | तैजस वर्गणाओं को ग्रहण करता है, उनमें से कोई वर्गणायें सागर से क्या तात्पर्य है?
तो अगले समय में ही खिर सकती हैं और कोई वर्गणा समाधान- श्री धवला पु. १४ पृष्ठ २४६-२४८ | यदि उत्कृष्ट काल तक रहे, तो ६६ सागर तक शरीरपर पाँचों शरीरों से बद्ध निषेकों का उत्कृष्ट व जघन्य | बद्ध होकर रहती है। ६६ सागर से अधिक काल में, सत्ताकाल दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि तैजस- | कोई भी वर्गणा शरीर वद्ध होकर नहीं रह सकती है। शरीर-बद्धवर्गणाओं का उत्कृष्ट काल ६६ सागर तथा | इस प्रकार तैजस शरीर की उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर जघन्य काल-१ समय है।
बनती है। इसका तात्पर्य है कि एक समय में जीव जितनी
१/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
आगरा (उ.प्र.)
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र ग्रहण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता
क्षमा
क्षमा के विषय में कहा गया है-'सत्यपि प्रतिकारसामर्थ्येऽपकारसहनं क्षमा' प्रतिकार करने की सामर्थ्य होते हुए भी दूसरों के अपकार को सहन करना वास्तविक क्षमा है। उदारदृष्टि और सकारात्मक सोचवाले व्यक्ति ही इसे धारण कर सकते हैं। सत्ता, शक्ति और प्रभुता से सम्पन्न होने के बाद भी अपने अपकारी के प्रति क्षमाभाव बनाये रखना महात्मा का लक्षण है। छोटी-छोटी बातों में उद्विग्न और विचलित होना उथली मानसिकता की पहिचान है। सच्चे साधक विषमतम परिस्थितियों में भी उद्विग्न नहीं होते। उनकी समता खण्डित नहीं होती वे हर परिस्थिति में समता और क्षमा की प्रतिमूर्ति बने रहते हैं।
एक साधु नाव पर यात्रा कर रहे थे। नाव पर कुछ युवक भी सवार थे। युवकों को मजाक सूझा। उन्होंने साधु महाराज की हँसी उड़ाना शुरू कर दी। साधु सच्चे साधु थे। उन्होंने अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं की। युवकों ने साधु की समता को उनकी कमजोरी समझा, वे एकदम उद्दण्डता पर उतर आये। पर साधु महाराज पूर्णतः अविचलित रहे।
सन्त कहते हैं- साधुओं का स्वभाव चन्दन की भाँति होता है, जो जलाये जाने पर भी सुगन्ध प्रदान करता है। एक युवक ने साधु महाराज को नदी में ढकेलना चाहा कि तभी जल देवता प्रकट हो गये। जल देवता ने साधु महाराज से निवेदन करते हुए कहा- 'महाराज! इन दुष्टों ने आपके साथ दुर्व्यवहार किया है, मैं अभी नाव पलट कर सभी को सबक सिखाता हूँ। सन्त ने देवता को रोकते हुए कहा'नहीं नहीं, ऐसा मत करो, नाव पलटने से क्या होगा? पलटना ही है तो इनकी बुद्धि पलट दो।'
सन्त की वाणी सुनकर सारे युवक पानी-पानी हो गये। सभी उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगे। यह है आदर्श क्षमा। कुरल काव्य में ठीक ही कहा है- 'घमण्ड में चूर होकर जिन्होंने तुम्हें हानि पहुँचायी है, तुम उन्हें क्षमा व्यवहार से जीत लो।'
'धर्म जीवन का आधार' (मुनि श्री प्रमाणसागर जी) से साभार
28 अग्रस्त 2008 जिनभाषित
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