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सत्ययुग है। इस सत्ययुग में पशुका वध करके प्राणी | गया है मूलतः यज्ञ करने की परम्परा रही है। यह बात हिंसा कैसे उचित है? उसी समय उपरिचर वसु आकाश | अलग है कि यज्ञ के स्वरूप में मतभेद जरूर है। मार्ग से अपनी सेना के साथ आ रहा था। उसे देख | भगवद्गीता के अनुसार यज्ञका स्वरूप ही अलग है, वह ऋषियों ने देवताओं से कहा कि राजा वसु तुम लोगों | अग्नि में हवन करने का समर्थक नहीं है। इसके बारे के संदेह का निवारण करेगा। सबने मिलकर वसु से | में फिर कभी विचार किया जाएगा। पूछा कि महाराज! क्या बकरे को हविषान्न करके यज्ञ अब हम एक महत्त्वपूर्ण विषय पर आते हैं, वह करना चाहिए? अथवा धान्यों को ही हविषान्न करके | यह है कि मूलतः वेद किसका उपदेश देते हैं और यज्ञ करना चाहिए। इन दोनों में से वेद में किसका उल्लेख | उन मन्त्रों के अर्थों को समझने में गलती क्यों हुई? सबसे है? तुम हम सबके लिये प्रमाणभूत हो ऐसा हम सबका | पहले यह स्मरण में रखना है कि वेदों कि भाषा एक अभिप्राय है। इसके पश्चात् वसु ने पूछा कि दोनों में | गूढ़ भाषा है, जिसको हर व्यक्ति समझ नहीं सकता। से कौन किसके पक्ष में हैं। दोनों ने अपना अपना पक्ष | इसलिए शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं दिया बताया। यद्यपि राजा वसु धान्य से यज्ञ करता था, लेकिन | गया था, जैसा कि 'वरांगचरित्र' से ज्ञात होता है। इसके देवताओं के अभिप्राय को समझकर पक्षपात से बकरे | अलावा वेद गुरुमुख से पढ़े जाते थे, ताकि उसका सही को रखकर ही यज्ञ करना चाहिए, ऐसा कह दिया। इस | अर्थ समझ में आवे। चम्पतराय जैन साहब की पुस्तक पर ऋषियों ने कहा कि तुम्हें सही अर्थ ज्ञान होने पर | असहमत संगम पृ. १२३ जिसमें उन्होंने लुई जेकोलिएट भी तुमने देवताओं का पक्ष लिया है। इसलिए तुम अभी | महोदय का उदाहरण दिया है, इसमें लिखा है "पवित्र स्वर्ग से च्युत हो जाओ। आज से तुम्हारी आकाश में पुस्तकों को साधारण पुस्तकों की भांति उनको शब्दार्थ गमन करने की शक्ति नष्ट हो जायेगी है। हमारे शाप | में नहीं पढ़ना चाहिये। यदि उनका असली भाव उनके के आघात से तुम पृथ्वी को भेदकर पाताल में प्रवेश शब्दार्थ से विदित होता तो शूद्रादि को उनके अध्ययन करो। और हुआ भी ऐसा ही। पाताल में जाने के बाद | से क्यों रोका जाता? वेद स्वयं अपना भाव प्रगट नहीं भी वह नारायण की भक्ति करता था, इससे नारायण | करते हैं और वे तब ही समझ में आ सकते हैं, जबकि ने राजा वसुको शाप से मुक्त कर दिया और वसु फिर | गुरु उस वस्त्र को जिससे वह ढके हैं, उतार देता है से उपरिचर कहलाने लगा।
और उन बादलों को, जो उनके आंतरिक प्रकाश को इस संक्षेप अध्ययन से हमें यह मालूम होता है | छिपाये हुये हैं हटा देता है।" (ओकल्ट सायंस इन इण्डिया कि वैदिक संस्कृति में पशु बलि की परम्परा किस प्रकार | पृ. १०२)। से प्रचलित हुई। जैनाचार्यों ने इतिहास की उपेक्षा की जेकोलिएट साहब के वक्तव्य से हम समझ सकते है यह कहना कहाँ तक सत्य है, यह पाठक स्वयं समझ | हैं कि वेदों का असली भाव क्या है, वेद कोई घटनाओं सकते हैं। जैनाचार्यों ने प्राचीन इतिहास को बहुत अच्छे | का लेखा जोखा नहीं है, बल्कि उसमें अध्यात्म भरा से सुरक्षित रखा है यह ऊपर वर्णित कथा से स्पष्ट | हुआ है। वेदों के सही अर्थों के बारे में फिर कभी हो जाना है। इन दोनों कथाओं से कई बातों का खुलासा चर्चा करेंगे। वेदों के इन गूढ़ अर्थों को नहीं समझने हो जाता है। यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है | के कारण ही पशुबलि की परम्परा चल पड़ी, जैसा कि कि बहुत समय पहले ही वेदों के अर्थों का सम्प्रदाय | पर्वत के आख्यान से स्पष्ट हो जाता है। वेदों को मात्र छिन्न-भिन्न हो चुका था अर्थात् उसको सही रूप में शब्दार्थ ग्रहण करने से बहुत सी गलतियाँ हुई हैं। यह समझनेवाले बहुत कम लोग थे। दोनों कथाओं के अनुसार | भी ध्यान रखने की बात है कि जैनपरम्परा के अनुसार राजा वसु ही एक ऐसा व्यक्ति था, जो वेदों के अर्थों | वेदों कि रचना बहुत प्राचीनकाल में हुई है, जैसा कि का निर्णय कर विवाद को समाप्त कर सकता था। साथ | हरिवंशपुराण और उत्तर पुराण से पता चलता है, में यह भी समझ में आता है कि वेद मन्त्रों में हिंसा | हरिवंशपुराण में वेदों के दो भेद किये गये है, एक आर्ष का उल्लेख नहीं है, उनमें तो अहिंसक तरीके से ही | वेद और दूसरा अनार्ष वेद। आर्ष वेद वह है जो जिनेन्द्र यज्ञ करने का उल्लेख है। वैदिक परम्परा जैसा कि समझाया ! भगवान् द्वारा कहा गया है, जिसको बारह भागों में विभाजित
'अगस्त 2008 जिनभाषित 19
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