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है, हिंसा का अर्थ आत्मा की आकुलता ही है। संसार प्रत्येक धर्म अहिंसा की उपासना के लिये दबाव में प्राणों के बिखर जाने को ही हिंसा बोलते हैं, वे प्राण डालता है, जोर देता है और प्रचार-प्रसार करता है किंतु शरीराश्रित प्राण हैं। विश्व इस तथ्य को दृढ़ करता है | महावीर भगवान् का संदेश यहीं तक सीमित नहीं रहता, कि दूसरों को पीड़ा देना ही हिंसा है, यह हिंसा की | वे कहते हैं कि प्राण दूसरे के नहीं अपने पास भी अधूरी परिभाषा है। इस हिंसा के त्याग से जो अहिंसा | हैं। दूसरे के प्राणों का विघटन बाद में होगा, पहले अपने जब कभी भी आयेगी वह अहिंसा भी अधूरी मानी जायेगी| ही प्राणों का विघटन होता है। प्रथम, अपने प्राणों को
और इसके माध्यम से आत्मा की अनादिकालीन प्यास | विघटन होना ही वस्तुत: हिंसा है। हिंसा की यह अनोखी नहीं बुझ सकेगी।
परिभाषा है, सही-सही परिभाषा है, यह हिंसा का सत्य हमें बचाओ, बचाओ, कह रहे हैं, चिल्ला रहे हैं | स्वरूप है। जो हिंसा का सत्य-स्वरूप जानेगा वही व्यक्ति और आचार्य कह रहे हैं- बचो, बचो! आप कहते हैं- अहिंसा को प्राप्त कर सकेगा। जी जाने दो, जी जाने दो और आचार्य कहते हैं- जीओ, 'बिन जाने तैं दोष गुणन को कैसे तजिये गहिये।' जीओ। कुछ लोग अहिंसा की परिभाषा देते हुए कहते दोष क्या है? गुण क्या है? इसका सही-सही निर्णय हैं कि भगवान् ने संदेश दिया है कि जीओ और जीने | जब तक हम नहीं कर पायेंगे तब तक गुणों का आदान दो। 'जीओ' पहले रखा और 'जीने दो' बाद में रखा, | व दोषों का निवारण नहीं हो सकेगा आज तक हम जो जीयेगा वही जीने देगा। जीना प्रथम है जिलाना बाद | लोगों ने अहिंसा का अनुमोदन किया है किंतु यहीं तक में। जीना प्रथम है तो किस प्रकार जीना है, प्रथम यह किया है कि द्रव्य हिंसा से बचकर प्राणीमात्र के जीवन सोचना है। जिलाना बाद में है इसलिये जिलाने की सामग्री | की इच्छा का प्रयास किया, उपचार किया। यह सब को भी बाद में खोजना।
कुछ पहले किया और आत्मा की सुरक्षा बाद में। आत्मा जब भारतीय सभ्यता या साहित्य व पाश्चात्य सभ्यता | की सुरक्षा तब हो सकती है जबकि भावहिंसा से हमारा की तुलना करते हैं तो विदित होता है कि कहाँ पर | जीवन बिल्कुल निवृत्त हो जाये और जिस समय भावहिंसा हिंसा अधिक हो रही है? भारत की तुलना में पाश्चात्य | को तोड़ दें, भाव अहिंसा को अपना लें तो उसके अन्तर देशों में हिंसा अधिक होती है और हो रही है। जो व्यक्ति की महक/खुशबू बाहर भी हो जाये, वह महक अन्दर सबसे अधिक हत्यारा होता है वहीं हिंसक माना जाता | से बाहर आ जाये। है। विदेशों में दूसरों की हत्यायें अधिक नहीं हुआ करती| जो व्यक्ति राग करता है, द्वेष करता है, अपनी हैं बल्कि आत्महत्यायें अधिक हुआ करती हैं और यही| आत्मा में व्याकुलता उत्पन्न कर लेता है वह व्यक्ति सबसे अधिक खतरनाक चीज है। स्वयं अपना जीना | बंध को प्राप्त होता है और बंधन ही अपने लिये दःख ही उन्हें पसन्द नहीं है, जो स्वयं के जीने को पसन्द का कारण है. दःख रूप है। जो व्यक्ति बंधन को प्राप्त नहीं करते, स्वयं के जीवन के लिये चिन्ता नहीं करते | करेगा, उसकी अनुभूति करेगा, दूसरे के ऊपर उसका वे व्यक्ति अधिक खतरनाक होते हैं, उनसे कर, निर्दयी | प्रतिबिम्ब पडे बिना नहीं रह सकता. वह भी उसका
और कोई नहीं हो सकेगा। वे दुनिया में शांति देखना | अनुकरण, उसकी नकल करना प्रारम्भ कर देगा। पसन्द नहीं करेंगे।
एक मछली कुएँ में मर जाती है, वह उस सारे शांति के अनुभव में जो जीवन है, उसका महत्त्व | जल को गंदा बना देती है। जीने के लिये जो तत्त्व नहीं जानना ही हिंसा का पोषण है। आत्मविकल हो | था, जीवन था (जल को जीवन की संज्ञा भी प्राप्त है) जाना हिंसा है। रात-दिन बेचैनी का अनुभव करना, यही | वह उसमें समाप्त हो गया, विकृत हो गया वह कुँआ एक मात्र हिंसा है और उस व्यक्ति के माध्यम से काय | भी विकृत हो गया। इसी प्रकार हमारे स्वयं के अन्दर, की, वचन की और मन की जो चेष्टायें होंगी उन चेष्टाओं | हमारी आत्मा के अन्दर जो राग प्रणाली अनादि काल का प्रभाव दूसरे पर भी पड़ेगा, इसके फलस्वरूप वह | से विद्यमान है, वही एकमात्र 'नाग' है। वह जब तक 'द्रव्यहिंसा' मानी जायेगी। द्रव्य हिंसा के माध्यम से दूसरे | अन्दर रहेगा, हिंसा भी होगी। हिंसा का कोई संपादनकर्ता की हिंसा भी हो सकती है और नहीं भी हो सकती।। है तो वह है राग प्रणाली, राग प्रणाली प्रमाद उत्पन्न
मार्च 2008 जिनभाषित 5
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