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________________ महानरक बोलते हैं, रौरव नरक बोलते हैं, वहाँ पर उसे आपके जीवन पर आपका अधिकार है, पर अधिकार प्रवेश मिला। आप लोग भाव हिंसा व द्रव्य हिंसा को समझें, अपने जीवन को द्रव्य हिंसा से ही निवृत्त करना पर्याप्त नहीं है, हाँ ये लौकिक अहिंसा है। दूसरे को धक्का नहीं लगाना किन्तु धक्का लगे बिना भी तो नहीं रहता । होते हुए भी कुछ प्रेरणा बाहर से ली जा सकती है। मैं आपको सलाह दे सकता हूँ, राय दे सकता हूँ, आपको कुछ संबोधन दे सकता हूँ, यदि आपका उपयोग इस अर्थ को समझे, आप की बुद्धि इसको मंजूर करे तब ये आगे के कार्य हो सकते हैं, जबतक आपकी स्वीकृति नहीं है तो आगे के कार्य सम्पन्न कैसे हो सकते हैं? बाहर से तो आप इसकी प्राप्ति के लिए आतुर दिखते हैं किन्तु अन्दर से कोई लक्षण नहीं फूट रहा है। आप अपने में रहते हैं पर अपने में रहकर भी आपका मन तो अपने में नहीं है आपका वचन भी तो अपने में नहीं है, आपकी प्रवृत्तियाँ, आपकी चेष्टायें ही अपने में नहीं हैं तो आप दूसरे के लिए रात-दिन काँटों का काम कर रहे हैं। । आप बाहर मत देखिये, अपने में देखिये । एक व्यक्ति जो अपने जीवन को सच्चाई पर आरूढ़ कर लेता है, वह तो सुखी बन ही जाता है, साथ ही दूसरे के लिये भी वह सहायक बन जाता है । आप मात्र दूसरों को जिलाने में लगे हुये हैं । आचार्य कहते हैं कि एक व्यक्ति कोई गलती करता है तो वह एकांतरूप में अपने आप ही नहीं करता, उसमें दूसरे का भी हाथ अवश्य है। इसका अर्थ क्या हुआ ? इसका अर्थ यह हुआ कि हम पूर्ण अहिंसक बन जायें तो दूसरा भी अहिंसक बनेगा और हम अधूरे अहिंसक बने रहेंगे तो दूसरे भी अधूरे रहेंगे । दूसरे के धन को देखकर ईर्ष्या अथवा स्पर्धा करने में भी हिंसा के भावों की उद्भूति होती है । आज तक हमने अहिंसा को देखा नहीं, जाना नहीं, पहचाना नहीं और पहचानने के भाव भी नहीं किये। भगवान् महावीर ने एक प्रकार से अहिंसा का प्रचार नहीं किया, संदेश नहीं दिया, यह देने की चीज भी नहीं है। तब बिना दिये इसका प्रचार-प्रसार हुआ कैसे ? कस्तूरी का प्रचार-प्रसार करने की आवश्यकता नहीं है, जो सत्यता है, रियलिटी है- उसका प्रभाव अवश्य पड़ता है, किंतु तब, जब कि सामने वाला व्यक्ति उसको देखना चाहे । जो राग करेगा, द्वेष करेगा वह बंधनबद्ध होगा, वह स्वयं रोयेगा और दूसरे को रुलायेगा और जो व्यक्ति वीतराग बनेगा, अलगाव भाव रखेगा वह स्वयं सुखी होगा और दूसरे को सुखी बनाने में कारण सिद्ध होगा । यह भाव अहिंसा व भाव हिंसा दोनों ही मानव पर, एक दूसरे पर, प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकते। आपका जीवन हिंसा से दूर हो और अहिंसामय बन जाये मैं आपको यही उपदेश देता हूँ किन्तु मेरा कहना तो तब ही प्रभावमय बन सकता है, जब कि आप भी उसके लिये उत्साहित हों, उसमें कुछ रुचि लें, जब तक अभिरुचि नहीं होती है, तब तक किसी भी क्षेत्र में उन्नति संभव नहीं होती, प्रगति भी नहीं होती । अहिंसा के क्षेत्र में आपकी प्रगति चाहता हूँ किन्तु प्रगति के पूर्व गति की आवश्यकता है। अभी आपकी गाड़ी हिल नहीं रही अभी वह पटरी पर आने के बाद एक बार भी धक्का लगा दो तो प्रारम्भ हो जायेगी, पूर्व संस्कार के कारण कार्य हो जायेगा किन्तु एक बार तो हिले वह यहाँ से । आप करना तो चाहें एक बार! आप करना ही नहीं चाह रहे । महावीर भगवान् ने लोगों को कभी छोटा नहीं देखा, छोटा नहीं समझा, उन्होंने सबको पूर्ण देखा है और पूर्ण जाना है और पूर्ण समझा है। आप भी भगवान् हैं किन्तु एक मात्र हिंसा का प्रतिफल है कि आप भगवान् के समान होकर भी भगवान् का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। आपकी शक्ति का अनुभव मात्र इसलिये नहीं हो पा रहा है कि उस शक्ति को आपने बाँध रखा है, वह अन्दर है, गुप्त है, वहाँ तक पहुँचने के लिये अन्य कोई रास्ता नहीं हैं, जब तक राग प्रणाली चलेगी तब तक सुख का कोई रास्ता नहीं मिल सकता । भाव हिंसा के माध्यम से आत्मा की हत्या हुआ करती है और द्रव्यहिंसा के माध्यम से शरीर की हिंसा हुआ करती है, उसके उपरान्त और विशेष चेष्टाओं के माध्यम से दूसरे के शरीराश्रित प्राणों का भी विघटन हो सकता है। भाव अहिंसा के माध्यम से दूसरे का कल्याण हो भी सकता है. और नहीं भी हो सकता है। किंतु आत्मा का कल्याण होता ही है। आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी में यह बात आ जाती है । मार्च 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only 9 www.jainelibrary.org
SR No.524326
Book TitleJinabhashita 2008 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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