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ही नहीं इसके उपरान्त भी उसे बंद कर दिया गया। होता जितना गहराई से होने वाला विस्फोट होता है। आत्मा और जिससे हत्या हो गयी थी, उसे छोड़ दिया गया, | की गहराई में जो राग-प्रणाली, द्वेष-प्रणाली उद्भूत हो ऐसा क्यों? यह इसलिये कि वहाँ पर द्रव्यहिंसा को नहीं जाती है वह अन्दर से लेकर बाहर तक जलाती हुई देख रहे, वहाँ पर भाव हिंसा को देख रहे हैं। न्याय आ जाती है, उसका फैलाव तीन लोक में फैल जाता है। जो चलता है, सत्य व असत्य का जो विश्लेषण किया आचार्यों की दिव्यध्वनि के माध्यम से यह ज्ञात जाता है, वह भावों के ऊपर निर्धारित है। जिस व्यक्ति | होगा कि द्रव्य हिंसा व भावहिंसा क्या चीज है? भाव को भाव सुरक्षा की कोई चिंता नहीं है, उस व्यक्ति | हिंसा व द्रव्य हिंसा का फल क्या होता है यह भी लोगों की सुरक्षा तीन काल में संभव नहीं है, ऐसा कोई कोर्ट | को विदित होगा। नहीं है, न हमारे यहाँ न भगवान् के यहाँ, भाव की | समुद्र है, वहाँ पर हजारों मछलियाँ होती है और तरफ जिसकी दृष्टि नहीं किन्तु मात्र द्रव्य में पड़ा हुआ | उनमें सबसे बड़ा मच्छ माना जाता है, वह मुँह फाड़ है वह व्यक्ति एकमात्र आत्मा को विस्मृत करके इस | कर सो जाता है उसके मुँह में से अनेक छोटी मछलियाँ पुद्गल के पीछे नाच रहा है और अपने आप के शरीरादिक | आती जाती रहती हैं। जब कभी भूख लगती है वह को ही 'खद' मान रहा है कि 'शरीर मैं हूँ और मैं
मैं | मुख को बंद कर लेता है, अन्दर की सारी मछलियाँ ही शरीर हूँ' इस प्रकार की कल्पना, इस प्रकार की | अन्दर रह जाती हैं, अनेकों मछलियाँ पेट में चली जाती धारणा ही हिंसा की जननी है।।
| हैं, वे अन्दर ही अन्दर हजम हो जाती हैं, जब चाहता आप, यह सोचें कि दूसरे का जिलाने की अपेक्षा | है, भूख मिटने के बाद पुनः मुँह खोल देता है छोटीस्वयं जीना सीखिये। आचार्यों ने लिखा है कि स्वयं तब छोटी मछलियाँ फिर स्वतन्त्र यात्रा प्रारम्भ कर देती हैं। जिया जाता है तब प्रवृत्ति मिट जाती है, जब एकान्त | इस दृश्य को देखकर एक छोटा मच्छ जिसे तन्दुल मच्छ रूप से वह अप्रमत्त रह जाता है उस समय वह जीता | बोलते हैं जिसका आकार भी बहुत छोटा होता है वह है और जब स्वयं जीता है तो दूसरे को भी जिलाता | | सोचता है कि यह राघव मच्छ भी कितना पागल है है, इसलिये कि दूसरे के लिये उसकी किसी प्रकार | इसका दिमाग ही नहीं दिखता, इतनी मछलियाँ आ रही की मन की, वचन की, काय की और आत्मिक चेष्टा | हैं, जा रही हैं और यह मुँह बंद नहीं करता। यदि इसके न रहने के कारण वह अपने आप ही जीवित है। उसका | स्थान पर मैं होता तो मुँह बंद करता ही रहता, खोलता जीवन अपने आश्रित है, अपना जीवन अपने आश्रित | ही नहीं, एक साथ ही सबको हजम कर लेता। देखिये, है, इसलिये मन वचन, काय की किसी प्रकार की चेष्टा | स्थिति कितनी गंभीर है। उसकी हिंसा की वृत्ति कहाँ न होने से दूसरे के लिये किसी प्रकार की बाधा नहीं | तक पहुँच चुकी है? चरम सीमा तक, अनन्त को खाने
की लिप्सा। खाता एक भी नहीं क्योंकि इतनी शक्ति भगवान् महावीर क्या चाहते हैं? वे अहिंसा चाहते | नहीं लेकिन मन के माध्यम से तो खा ही लेता है, हैं और अहिंसा में लीन हैं। ऐसी अहिंसा कि हमें अन्यत्र | आचार्य कहते हैं कि मन के माध्यम से खाना ही खाना कहीं दर्शन नहीं हो पाते, क्योंकि वे मात्र द्रव्यहिंसा से | है, बाहर से खाना, खाना थोड़े ही होता है। संकल्प कर परहेज रखते हैं, भाव हिंसा से नहीं। इन्द्रिय दमन का | लिया, अभिप्राय कर लिया, मन विकृत हो चुका, मन यदि कोई शिक्षण मिलता है, प्रशिक्षण मिलता है, तो | का संकल्प हो चुका कि मैं खाऊँ, बस खाता ही रहूँ यहीं पर (महावीर की अहिंसा में) मिलता है, अन्यत्र | यह महान् खतरनाक बात है। वह मच्छ बिना लिप्सा नहीं और इन्द्रिय दमन ही, कषाय शमन ही एक प्रकार | के जितनी आवश्यकता होती है उतना ही खाता है और से हिंसा का निराकरण है।
| उस तन्दुल मच्छ ने एक भी मछली को नहीं मारा पर वह अन्दर बैठा आत्मा जो सोच रहा है, उसके | लिप्सा पूरी है इसलिए उस तन्दुल मच्छ को कहाँ जाना माध्यम से ये सब कार्य हो रहे हैं। यह विस्फोट कहाँ | पड़ता है? वह सीधा सप्तम पृथ्वी का टिकिट खरीद से हो रहा है? ध्यान रखें विस्फोट ऊपर से नहीं होता, | लेता है। यह है भाव हिंसा। वहाँ द्रव्यहिंसा नहीं हो जो विस्फोट ऊपर से होता है वह इतना खतरनाक नहीं | रही पर उसे भी सप्तम पृथ्वी तक जाना पड़ा, जिसको
- मार्च 2008 जिनभाषित 8
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