SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदहिदं कादव्वं जं सक्कइ तं परहिदं च कादव्वं ।। तो अपनी भाव अहिंसा सहायक है, माध्यम है यही आद-हिद, परहिदादो, आद हिदं सुठु कादव्वं॥ | है 'जीयो और जीने दो'। प्रत्येक व्यक्ति अपनी चिन्ता आत्मा का हित सर्वप्रथम करना चाहिये। परहित | करेगा तो फिर कोई दुःखी नहीं रहेगा। यह आध्यात्म व आत्महित की तुलना करते हुए समीचीन कौन-सा | का रहस्य है- अपने को जानो, अपने को पहचानो, अपनी है? उन्होंने उत्तर दिया- आद-हिद-परहिदादो, आद-हिदं | | सुरक्षा करो, अपने में ही सब कुछ है। पहले विश्व सुट्ठकादव्वं-अर्थात् दोनों में अच्छा आत्महित है। आत्मा | को भूलो और आत्मा को जानो, जब आत्मा को जान ने अपना हित सोच लिया तो बस समझिये उसने परमात्मा | जाओगे तो विश्व स्वयं सामने प्रकट हो जायेगा। वस्तुतः का रूप धारण कर लिया और महावीर बन गये। | अहिंसा के माध्यम से ही स्व-पर कल्याण संभव है। अहिंसा धर्म की उपासना कीजिये। भाव अहिंसा, | धर्म का प्रचार उस पर चलने से, आचरण करने आत्मा के उत्थान के लिये सोपान एवं मंजिल है और | से होगा। महावीर के पथ पर चलना ही उनके धर्म द्रव्य अहिंसा, अड़ोसी-पड़ोसी में सुख-शांति का विस्तार | का प्रचार-प्रसार करना है। बातों-बातों में प्रचार-प्रसार करने वाला है। इस प्रकार स्व व पर का कल्याण इन | नहीं होता। दोनों अहिंसा पर ही निर्धारित हैं, आधारित हैं। किंतु 'चरण आचरण की ओर' से साभार यह ध्यान रखें कि पर के कल्याण की दृष्टि रखेंगे । नजर आपके पत्र सुमेरचन्द्र जैन जिनभाषित का जनवरी 08 अंक मिला। पत्रिका नजर तो नजर है, नजर से नजारा, हाथ आते ही शुरू से अंत तक एक बार में ही पढ़ चाहोगे जैसा नजर आयेगा। डाला। एक शानदार ज्ञानवर्धक पत्रिका परी पढे बिना नजर तो है एक आइने की तरह, मन नहीं मानता। आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे अश्क खुद का ही उसमें नजर आयेगा॥ १॥ बहुत अच्छे लगे। उनके परम शिष्य मुनि क्षमासागर रखते रहते नजर, दूसरों पर सभी, | जी की कविताएँ मन को अंदर तक छूती चली जाती एक नजर भी कभी खुद पर डाली नहीं। । हैं। बहुत गहराई होती है उनके काव्य में। उनकी भूल बस एक यही, करते रहते सभी, चार लाइनें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती भूल खुद की नजर, खुद को आती नहीं॥ २॥ | हैं। पं० तेजपाल काला का लेख जिनवाणी का उद्गम जब बसा खोट हो, खुद अपनी ही नजर, | और उसका विकास जानकारियों से युक्त है। डॉ० खोट ही खोट सबमें नजर आयेगा। | ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा ने विदेशी संग्रहालय में महत्त्वपूर्ण मदभरी हो नजर, या हो तिरछी नजर, प्रतिमाएँ बावत वहाँ की जैन मूर्तियों का विस्तार पूर्वक सच कभी भी न तुमको नजर आयेगा॥ ३॥ वर्णन किया है इसकी जानकारी बहत कम लोगों को पा सकोगे खुदा, जो नजर ही नहीं, | है। डॉ० निजाम उद्दीन ने सही लिखा है कि जैनधर्म खुद को नजरे बिना, खुद को जाने बिना। | विश्व शांति में सहायक है। आपको विश्व में शांति वह नजर ही नहीं, जो नजर चाहिये, | स्थापित करने के लिए अपरिग्रहवाद के मार्ग पर चलना खुद में खोजो खुदा बस खुदा के लिये॥ ४॥ होगा, तभी शांति हो सकती है, जैन सिद्धान्तों का पालन पेश करता नजर, इक नजर के लिये, कर विश्वशांति पाई जा सकती है। पत्रिका का हर करके देखो नजर नाक की सीध में। लेख, कविता, प्रसंग पठनीय है। तब मिलेगा खुदा, सच नजर आयेगा, राजेन्द्र पटोरिया सीधी कर लो नजर, बस खुदा के लिये॥ ५॥ पूर्व संपादक, खनन भारती हनुमान कॉलोनी, गुना (म.प्र.)। आजाद चौक, सराफा नागपुर (महाराष्ट्र) मार्च 2008 जिनभाषित 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524326
Book TitleJinabhashita 2008 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy