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जिनवाणी का उद्गम और उसका विकास
पं० तेजपाल जी काला जिन्होंने ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों पर विजय। दिव्य एवं लोकोपकारी वाणी को उनके प्रमुखशिष्य प्राप्त कर सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता प्राप्त कर ली है, उन्हें | मन:पर्यय ज्ञानधारी इन्द्रभूति गौतम गणधर ने द्वादशांग अरहंत परमात्मा अथवा कर्मविजेता 'जिन' कहते हैं। के रूप में निबद्ध कर प्राणियों को समझाया, उनको अनादिकाल से प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के प्रबुद्ध किया। इस द्वादशांगरूप जिनवाणी में ऐसा कोई कल्पकाल में ऐसे असंख्य जिन होते है, जो अपनी आयु | विषय शेष नहीं रहा जिस पर विशद् प्रकाश नहीं डाला के अंत में शेष अघातिया कर्मों का भी नाश कर मोक्ष गया हो। विपुलाचल पर्वत पर कई दिनों तक भगवान में चले जाते हैं, उन्हें 'सिद्ध' कहते हैं। अनंत और अविनाशी | महावीर की धर्मदेशना चली। उसके अनंतर लगातार बारह सुख के स्थान मोक्ष को छोड़ फिर ये सिद्ध परमात्मा | वर्ष तक निर्वाण गमन से पूर्व तक यह धर्म- देशना कभी संसार में आकर जन्म-मरण के चक्र में नहीं फँसते। अनेक पृथक-पृथक् प्रदेशों और राज्यों में समवशरण के
यद्यपि मोक्ष जाने के पूर्व प्रत्येक कल्पकाल में | माध्यम से होती रही। असंख्य जिन होते हैं तथापि उनमें से प्रत्येक उत्सर्पिणी | इस धर्मदेशना का प्रभाव जनसाधारण पर और एवं अवसर्पिणी काल में जो २४-२४ तीर्थंकर होते हैं | राजा-महाराजाओं पर खूब पड़ा। राजा-महाराजाओं ने, जो उनके द्वारा ही 'जिन' अवस्था में समवशरण सभा में उस समय के प्रचलित हिंसामय धर्मों मिथ्यामतों में फस दिव्यध्वनि के माध्यम से दिव्योपदेश होता है। यह गये थे। उनका परित्याग कर दिया और वे प्रायः सभी दिव्यध्वनि सर्वज्ञ-वाणी होने से निर्दोष, सर्वप्राणी हितैषी | भगवान् महावीर के धर्म देशना के झंडे के नीचे आ और मंगलमय होती है अतः प्रमाणभूत होती है। । गये। क्रूर हिंसा से पूर्ण यज्ञ-यागादि की ज्वाला नष्ट
जिनमुख से उत्पन्न होने से इसको जिन-वाणी | हो गई। अहिंसा को धर्मरूप में सबने अपनाया था। अधर्म भी कहते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी के चतुर्थकाल के प्रारम्भ | और पाप के रूप में जो संसार में उस समय भयंकर में भगवान् ऋषभदेव आद्य तीर्थंकर हए, उनके द्वारा संसार | विषमता फैल गई थी। धर्म के नाम पर कलह, विसवांद को आत्मकल्याणकारी वास्तविकधर्म का स्वरूप समझाया | और संघर्ष होते थे उन सबको दूर करने के लिए भगवान गया। धर्म का आल्हादकारक, सुखप्रदायक प्रकाश सर्वत्र | महावीर ने अहिंसा के साथ-साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, फैला। असंख्यप्राणियों का अज्ञान और मिथ्यात्वांधकार | अपरिग्रह और स्याद्वाद के लोक हितैषी और आत्मशान्ति तिरोहित हुआ। इस जिनवाणी के उद्गम की परम्परा | कारक सिद्धान्त दिये। आज अन्तिम तीर्थंकर भगवान् इस हुण्डावसर्पिणी काल में भगवान् ऋषभदेव और उनके | महावीर का ही धर्मशासन चल रहा है और यह धर्मशासन अनंतर प्रत्येक तीर्थंकर के समय में तत्कालीन तीर्थंकर | इस अवसर्पिणी के पंचमकाल के अंत तक चलेगा। के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर लेने पर समवशरणसभा अतः यह लोक कल्याणकारी अहिंसा, अपरिग्रह होती रही। असंख्य प्राणियों ने उसे सुना और वे और स्याद्वाद का द्वादशांग रूप धर्मशासन जिस धर्मदेशना आत्मकल्याण के वीतराग धर्म को अपनाकर परमसुखी | (जिनवाणी) के आधार पर चल रहा है उसके उदगाता परमात्मा बन गये।
अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर हैं। जिस दिन यह अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर की भी जिनवाणी जिनवाणी भगवान् महावीर के मुख से सर्व प्रथम उनके द्वारा ४२ वर्ष की अवस्था में सर्वज्ञता प्राप्त कर | विपुलाचल पर्वत पर खिरी वह मंगलमय दिवस श्रावण लेने पर राजगृही के पास विपुलाचलपर्वत पर इन्द्राज्ञा | कृष्णा प्रतिपदा का था। से कुबेर द्वारा रचित अत्यंत सुंदर, लोकातिशायी, महान | | भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन्द्रभूति वैभवशाली समवशरण-सभा में हुई। इस अत्यंत | (गौतमस्वामी), सुधर्मास्वामी और जम्बुस्वामी ये तीन भव्यसमवशरणसभा में विशाल १२ कक्ष थे जिनमें मुनि, केवली हुए उनके बाद पाँच श्रुतकेवली हुए जिन्होंने आर्यिका, श्रावक, श्राविका, पशु-पक्षी एवं चतुर्निकाय के | भगवान् महावीर की देशना को द्वादशांगरूप में प्रचारित देव-देवियाँ अपने-अपने लिए नियोजित कक्ष में बैठकर | किया। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद काल के अनुसार भगवान् का धर्मोपदेश सुनते थे। भगवन् महावीर की | ज्ञान में क्षीणता आती गई और द्वादशांगरूप श्रुतज्ञान की
जनवरी 2008 जिनभाषित 7
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