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होते-होते अंत में एक आचार्य लोहाचार्य नाम के हुए जिन्हें एक अंग का ज्ञान शेष रहा था। यह सर्वकाल भगवान महावीर के अनंतर ६८३ वर्ष का था।
स्मृति भी कम होती गई। शिष्यपरम्परा से अंगज्ञान क्षीण | अकलंकदेव, गुणभद्र, विद्यानंदि, अमृतचन्द्राचार्य, जयसेनाचार्य, सोमदेव, जयसिंहनंदि, नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती आदि अनेकानेक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अपने सम्यक्ज्ञान रूप दिव्यप्रकाश से संसार को साहित्य रचनाएं प्रदान करके आलोकित किया
इसके पश्चात् अंगज्ञान भी क्षीण होता चला गया। अंत में धरसेनाचार्य नामक एक आचार्य हुए जिन्हें मात्र अग्रायणी पूर्व का ज्ञान था और वे अष्टांग महानिमित्त के महानज्ञाता थे तब उन्हें इस जिनवाणी के शेष अशंमात्र श्रुतज्ञान के भी लुप्त हो जाने की चिंता हुई । अतः उन्होंने संसार के जीवों के कल्याण हेतु उस अंशमात्र श्रुतज्ञान की रक्षा के लिये अपना ज्ञान उस समय के विशिष्ट महाज्ञानी तपस्वी महामुनि पुष्पदंत और भूतबली को दिया । इन दोनों विद्वान् महातपस्वी साधुओं ने गुरुपरम्परा से प्राप्त जिनवाणी को षट्खंडागम नामकग्रंथ में लिपिबद्ध कर लुप्त होनेवाली जिनवाणी के अंश का विकास करने का प्रथम श्रेय प्राप्त किया।
जिस दिन यह षट्खण्डागम नामकग्रंथ लिपिबद्ध होकर पूर्ण हुआ वह दिन ज्येष्ठशुक्ला पंचमी का था । उस दिन अंकलेश्वर (सौराष्ट्र) में चतु:संघ ने उस ग्रंथ को महान भक्ति पूर्वक वेष्ठन में बांधकर बड़ी भारी श्रद्धा और प्रभावना के साथ उसकी अष्टद्रव्य से पूजा की । अतः यह मंगलमय दिवस श्रुतपंचमी के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।
उसके अनंतर श्री वीरसेनाचार्य ने षट्खंडागम के पांचखण्डों की ७२ हजार श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका की, जो धवला टीका नाम से प्रख्यात है। छठे खण्ड की २० हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका कर वे संन्यस्त हो गये । उनके बाद उनके महान् विद्वान् शिष्य महापुराण - ग्रंथ के रचयिता आचार्य जिनसेन ने छठे खंड की अपूर्ण टीका को ४० हजार श्लोक प्रमाण रचकर जयधवला टीका पूर्णकर अपने गुरु के कार्य को पूर्ण किया। इस प्रकार १ लाख ३२ हजार श्लोक प्रमाण विशाल - टीकाग्रंथ अन्य किसी धर्म का आज उपलब्ध नहीं है।
इसके पश्चात् तो अनेक महान् जैनआचार्य हुए जिन्होंने गुरु परम्परा से प्राप्त जिनवाणी के अनुसार चतुरनुयोग सम्बंधी अनेक महान् ग्रंथो की संस्कृत - प्राकृत भाषा में रचनाएँ कीं और उनकी टीकाएँ कर संसार का महान् उपकार किया है। उनमें गुणधराचार्य, कुन्दकुन्दाचार्य, यतिवृषभाचार्य, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यवाद,
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भगवान् महावीर के पश्चात् एक ऐसे महान् विद्वान् तपस्वी हुए हैं जिन्होंने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, रयणसार, पंचास्तिकाय, मूलाचार और अष्टपाहुड़ आदि अनेक प्राभृत ग्रंथों की अध्यात्म प्रधान शैली में रचनाएं की हैं। बारसअणुवेक्खा और प्राकृत दशभक्तियां भी आपकी अमूल्य रचनाएं है। तमिल भाषा में एक कुरलकाव्य भी है जो आपकी रचना माना जाता है जो कि तमिलसाहित्य का अनुपमरत्न 1
तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता श्री उमास्वामी आचार्य महान् विद्वान् आचार्य हुए हैं, जिन्होंने संस्कृत भाषा में सूत्ररूप ग्रंथों की रचना का सापात किया । तत्त्वार्थसूत्र नामक अनुपमग्रंथ के माध्यम से आपने मोक्षमार्ग का निरूपण करते हुए १० अध्यायों सप्त तत्वों का यथार्थ स्वरूप प्रतिपादित किया है। आपके इस ग्रंथ पर अनेक विद्वान् आचार्यों ने विद्वत्ता पूर्ण बडी-बडी संस्कृत टीकाएँ रची हैं ।
प्रतिभाशाली महान् आचार्यों की इस श्रृंखला में पूज्यवाद आचार्य का नाम भी जैन जगत् में अत्यंत गौरव के साथ लिया जाता है, उन्होंने अपनी अमूल्यकृतियों से जिनवाणी के रहस्य को खोलकर संसार के समक्ष उपस्थित किया है। समन्तभद्राचार्य ने जैनेन्द्र व्याकरण, समाधिशतक, इष्टोपदेश आदि स्वतंत्र रचनाएँ निर्मित की हैं। इसके अलावा संस्कृत दशभक्तियों की रचना भी आपने की है । तत्त्वार्थसूत्र पर सवार्थसिद्धि नामक टीकाग्रंथ जैन जगत् में अनुपम टीकाग्रंथ है वर्तमान के उपलब्ध ग्रंथों में तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वप्रथम टीकाग्रंथ है। जिनाभिषेकग्रंथ भी आपका माना जाता है।
आचार्य विद्यानन्द भी महान् प्रतिभाशाली आचार्य हुए है, जिन्होंने तत्त्वार्थसूत्र पर श्लोक वार्तिकालंकार नाम विशदटीका दार्शनिक शैली में रचा है। इसी प्रकार अष्टसहस्त्री नामक टीकाग्रंथ समन्तभद्राचार्य के देवागमस्तोत्र पर रचा गया | स्वोपज्ञटीकासहित आप्तपरीक्षा आपकी स्वतंत्र रचना है। इसके अतिरिक्त भी आपने विद्यानन्द महोदय, सत्यशासनपरीक्षा आदि कई ग्रंथों का प्रणयन किया है।
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जनवरी 2008 जिनभाषित 8
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