SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री बाई जी (धर्ममाता चिरौंजाबाई) की आत्माकथा क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी हे प्रभो! मैं एक ऐसे कुटुम्ब में उत्पन्न हुई जो | को सरल कर रही हूँ। हे प्रभो! यदि आज मर जाती अत्यन्त धार्मिक था। मेरे पिता मौजीलाल एक व्यापारी | तो न जाने किस गति में जाती? आज मैं सकुशल लौट थे। शिकोहाबाद में उनकी दुकान थी। वह जो कुछ उपार्जन | आई यह आपकी ही अनुकम्पा है। संसार में अनेक करते उसका तीन भाग बुन्देलखण्ड से जानेवाले गरीब | पुरुष परलोक चले गये। उनसे मुझे कोई दु:ख नहीं, जैनों के लिए दे देते थे। उनकी आय चार हजार रुपया | हआ पर आज' पतिवियोग के कारण असह्य वेदना हो वार्षिक थी। एक हजार रुपया गृहस्थी के कार्य में खर्च | रही है इसका कारण मेरी उनमें ममता बुद्धि थी। अर्थात् होता था। ये मेरे हैं और मैं इनकी हूँ यही भाव दुःख का कारण एक बार श्रीगिरिराज की यात्रा के लिए बहुत से | था। जब तत्त्वदृष्टि से देखती हूँ तब ममता बुद्धि का जैनी जा रहे थे। उन्होंने श्री मौजीलालजी से कहा कि | कारण भी अहम्बुद्धि है ऐसा स्पष्ट प्रतीत होने लगता 'आप भी चलिये।' आपने उत्तर दिया कि 'मेरे पास है। अर्थात् 'अहमस्मि'- जब यह बुद्धि रहती है कि चार हजार रुपया वार्षिक की आय है, तीन हजार रुपया | मैं हूँ तभी पर में 'यह मेरा है' यह बुद्धि होती है। मैं अपने प्रान्त के गरीब लोगों को दे देता हूँ और एक | इस प्रकार वास्तव में अहम्बुद्धि ही दु:ख का कारण हजार रुपया कुटुम्ब के पालन में व्यय हो जाता है, इससे | है। हे भगवन्! आज तेरे समक्ष यह प्रतिज्ञा करती हूँ नहीं जा सकता। श्री भगवान् की यही आज्ञा है कि जीवों | कि न मेरा कोई और न मैं किसी की हूँ। यह जो पर दया करना। उसी सिद्धान्त की मुझे दृढ़ श्रद्धा है।। शरीर दीखता है वह भी मेरा नहीं है, क्योंकि दृश्यमान जिस दिन पुष्कल द्रव्य हो जावेगा उस दिन यात्रा कर | शरीर पुद्गलका पिण्ड है। तब मेरा कौनसा अंश उसमें आऊँगा।' है जिसके कि साथ मैं नाता जो.? आज मेरी भ्रान्ति मेरे पिता का मेरे ऊपर बहुत स्नेह था। मेरी शादी | दूर हुई। जो मैंने पाप किये उसका आपके समक्ष प्रायश्चित सिमरा ग्राम के श्रीयुत सिं० भैयालाल जी के साथ | लेती हूँ। वह यह कि आजन्म एक बार भोजन करूँगी, हुई थी। जब मेरी अवस्था अठारह वर्ष की थी तब | भोजन के बाद दो बार पानी पीऊँगी, अमर्यादित वस्तु मेरे पति आदि गिरनार की यात्रा को गये। पावागढ़ में | भक्षण न करूँगी, आपकी पूजा के बिना भोजन न करूँगी, मेरे पति का स्वर्गवास हो गया, में उनके वियोग में बहुत | रजोदर्शन के समय भोजन न करूँगी यदि विशेष बाधा खिन्न हुई, सब कुछ भूल गई। एक दिन तो यहाँ तक | हुई तो जलपान कर लूंगी। यदि उससे भी सन्तोष न विचार आया कि संसार में जीवन व्यर्थ है। अब मर | हुआ तो रसों का त्याग कर नीरस आहार ले लूँगी, प्रतिदिन जाना ही दुःख से छूटने का उपाय है। ऐसा विचार कर | शास्त्र का स्वाध्याय करूँगी, मेरे पति की जो सम्पत्ति एक कुए के ऊपर गई और विचार किया कि इसी में | है उसे धर्म कार्य में व्यय करूँगी, अष्टमी चतुर्दशी का गिरकर मर जाना श्रेष्ठ है। परन्तु उसी क्षण मन में विचार | उपवास करूँगी। यदि शक्ति हीन हो जावेगी तो एक आया कि यदि मरण न हुआ तो अपयश होगा और | बार नीरस भोजन करूँगी, केवल चार रस भोजन में यदि कोई अंग-भंग हो गया तो आजन्म उसका क्लेश | रखूगी, एक दिन में तीन का ही उपयोग करूँगी। भोगना पड़ेगा, अतः कुए से पराङ्मुख होकर डेरापर आ | इस प्रकार आलोचना कर डेरा में मैं आ गई और गई और धर्मशाला में जो मंदिर था उसी में जाकर श्री | सास को, जो कि पुत्र के विरह में बहुत ही खिन्न थीं भगवान् से प्रार्थना करने लगी कि-'हे प्रभो! एक तो सम्बोधा- माताराम! जो होना था वह हुआ, अब खेद आप है जिनके स्मरण से जीवन का अनन्त संसार छूट | करने से क्या लाभ? आपकी सेवा मैं करूगी, आप सानन्द जाता है और एक मैं हूँ जो अपमृत्य कर नरक मार्ग | धर्मसाधन कीजिये। यदि आप खेद करेंगी तो मैं सुतरां जनवरी 2008 जिनभाषित 4. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524324
Book TitleJinabhashita 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy