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मूलाचार की इस गाथा द्वारा उन मिथ्यादृष्टि एवं अविरतसम्यग्दृष्टि जैन गृहस्थों को उपदेश दिया गया है, जिन्होंने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए जिनप्रणीत ग्रन्थों के विधिवत् एवं नियमित स्वध्याय का कभी भी प्रयत्न नहीं किया अथवा सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेने पर द्वितीय व्रतप्रतिमा धारण नहीं की, फिर भी पर्युषण पर्व में दस-दस, ग्यारह-ग्यारह, दिन के उपवास करने का कठिन कार्य करते हैं। वे समझते हैं कि वे बहुत बड़ा धर्म कर रहे हैं, बहुत बड़ा तप कर रहे हैं, किन्तु मूलाचार की उपर्युक्त गाथा कहती है कि न तो उनका वह कोई धर्म है, न कोई तप, क्योंकि वह कर्मों के उन्मूलन में समर्थ नहीं है। मिथ्यादृष्टि को तो उन उपवासों से कर्मों की अल्पमात्र भी निर्जरा संभव नहीं है, अवितरसम्यग्दृष्टि को संभव है, किन्तु उन उपवासों से जितनी निर्जरा होती है, व्रतों के अभाव में कर्मों का आस्रव उस निर्जरा से कई गुना अधिक होता है। अतः वे उपवास हस्तिस्नानवत् निरर्थक हैं।
किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्ज्ञानी होता है, अतः व्रतधारण किये बिना उपर्युक्त प्रकार के तप में उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उसके द्वारा सर्वप्रथम व्रतधारण करने का ही प्रयत्न जीव ही सम्यग्ज्ञान न होने से अथवा ख्याति-पूजा की लालसा से महा-उपवासों में प्रवृत्त हो सकता है। मूलाचार में वर्णित उपर्युक्त जिनोपदेश के अनुसार मुमुक्षु को सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन-प्राप्ति का पौरुष करना चाहिए, तत्पश्चात् सामर्थ्यानुसार अणुव्रत या महाव्रत ग्रहण करना चाहिए, उसके बाद महा-उपवासादि तप तपना चाहिए। यही कर्मक्षय का जिनोपदिष्ट वैज्ञानिक मार्ग है।
रतनचन्द्र जैन
हितोपदेश
संसारी प्राणी सुख चाहता है, दुःख से भयभीत होता है। दु:ख छूट जावे ऐसा भाव रखता है। लेकिन दुःख किस कारण से होता है इसका ज्ञान नहीं रखा जावेगा तो कभी भी दुःख से दूर नहीं हुआ जा सकता। आचार्य कहते हैं- कारण के बिना कोई कार्य नहीं होता इसलिए दु:ख के कारण को छोड़ दो दुःख अपने आप समाप्त हो जायेगा। सुख के कारणों को अपना लिया जावे तो सुख स्वतः ही उपलब्ध हो जावेगा। दुःख की यदि कोई जड़ (कारण) है तो वह है- परिग्रह। परिग्रह संज्ञा के वशीभूत होकर यह संसारी प्राणी संसार में रुल रहा है, दुःखी हो रहा है। पर वस्तु को अपनी मानकर उससे ममत्व भाव रखता है यही तो दुःख का कारण है।
आचार्य महाराज ने परिग्रह त्याग के संबंध में बताया कि एक बार कम्हार. गधे के ऊपर मिट्टी लादकर आ रहा था। वह गधा नाला पार करते समय नाले में ही बैठ गया। मिटी धीरे-धीरे पानी में गलकर बहने लगी। उसका परिग्रह कम हो गया और उसका काम बन गया, उसे हल्कापन महसूस होने
ले- "जब परिग्रह छोडने से गधे को भी. आनंद आता है, तो आप लोगों को भी परिग्रह छोड़ने में आनंद आना चाहिए।" वहाँ बैठे श्रावक आचार्य भगवन के कथन का अभिप्राय समझ गये और सभी लोग आनंद विभोर हो उठे। हँसी-हँसी में ही गुरुदेव से इतना बड़ा उपदेश मिल गया कि यदि इसे जीवन में उतारा जावे तो संसार से भी तरा जा सकता है और शाश्वत सुख को प्राप्त किया जा सकता है।
(छपारा पंचकल्याणक, 20.01. 2001) मुनि श्री कुन्थुसागरकृत 'अनुभूत रास्ता' से साभार
जनवरी 2008 जिनभाषित 3
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