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________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे 37 न, मन नमन परिणमन हो, नहीं श्रमण में खेद। जब तक अब कब सब नहीं, और काल के भेद॥ 38 धन जब आता बीच में, वतन सहज हो गौण। तन जब आता बीच में, चेतन होता मौन॥ 39 फूल राग का घर रहा, काँटा रहा विराग। तभी फूल का पतन हो, राग त्याग, तू जाग॥ 46 राग बिना आतम दिखे, आतम बिन ना राग। धूम बिना तो आग हो, धूम नहीं बिन आग॥ 47 लौकिकता से हो परे, धरे अलौकिक शील। कर्म करे ना फल चखे, प्रभ तो ज्यों नभ नील॥ 48 स्वर्गों में ना भेजते, पटके ना पाताल। हम तुम सब को जानते, प्रभु तो जाननहार॥ 49 ना दे अपने पुण्य को, पर के ना ले पाप। पाप-पुण्य से हैं परे, प्रभु अपने में आप। 50 थक जाना ना हार है, पर लेना है श्वास। रवि निशि में विश्राम ले, दिन में करे प्रकाश ॥ 51 चेतन का जब जतन हो, सो तन की हो धूल। मिले सनातन धाम सो, मिटे तनातन भूल ॥ 40 दुबला-पतला हूँ नहीं, सबल समल ना मूढ़। रूढ़ नहीं हूँ प्रौढ़ ना, व्यक्त नहीं हूँ गूढ॥ 41 नहीं नपुंसक पुरुष हूँ, अबला नहीं बवाल। जरा जरा से ग्रसित भी, नहीं युवा हूँ बाल॥ ___42 काया, माया से तथा, छाया से हूँ हीन। राजा राणा हूँ नहीं, जाया के आधीन॥ 43 52 तुलना उपमा की हवा, मुझे न लगती धूप। स्वरूप मेरा रूप ना, कुरूप हो या रूप 44 क्रोध काँपता बिचकता, मान भूल निज भाव। लोभ लौटता दूर से, मेरे देख स्वभाव॥ 45 जीव जिलाना जालना, दिया जलाना कार्य। भूल भुलाना भूलना, शिव-पथ में अनिवार्य॥ मोह दुःख का मूल है, धर्म सुखों का स्रोत। मूल्य तभी पीयूष का, जब हो विष से मौत। 53 चिन्तन से चिन्ता मिटे, मिटे मनो मल-मार। प्रसाद मानस में भरे, उभरें भले विचार ॥ 54 भले-बुरे दो ध्यान हों, समाधि इक हो, दो न। लहर झाग तट में रहे, नदी मध्य में मौन । 'सूर्योदयशतक' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524324
Book TitleJinabhashita 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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