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में जो जैसा कथन किया था उसकी टीका निष्पृहभाव | होते हैं। जो जैनी है और अपने को अव्रती जानता है, से मूल के अनुरूप की। अपनी ओर से अन्यथा नहीं | वह सम्यग्दृष्टि से अपनी बंदना पूजा कैसे करायेगा? लिखा। त्रिलोकसार गाथा ९८८ की टीका भी गाथानुरूप | तथा शास्त्रों में ऐसी कोई कथा नहीं है जहाँ धर्मात्मा की। जिसमें जिनप्रतिमा के पार्श्व में श्री देवी और सरस्वती | पुरुष ने देवों की पूजा की हो। बधाई उन महानुभावों देवी का और सवह्नि यक्ष तथा सनत्कुमार यक्ष का वर्णन | को जिन्होंने उक्त दोनों विद्वान मनीषियों के कथन को है। श्री टोडरमल जी ने इसमें कोई छेड़छाड़ नहीं की | यथावत् प्रकाशित किया। किन्तु अपने ग्रंथ मोक्षमार्गप्रकाशक के छठे अध्याय में | यह उल्लेखनीय है कि उपलक्षण न्याय से सवह्नि कुदेवप्रकरण में व्यंतर, ज्योतिषी, क्षेत्रपाल, दहाड़ी, पद्मावती | यक्ष आदि के समान क्षेत्रपालादि को मानने से इन्द्रादिक आदि देवी, यक्ष-यक्षणी आदि की पूजा का सतर्क निषेध | की व्यवस्था भंग होती है, अतः यह अनुचित है। वीतरागी किया है और उन्हें कुदेवों की श्रेणी में माना है। इनकी | परम्परा में अठारह दोष रहित अरहंतदेव ही जिनदेव हैं पूजा से मिथ्यात्व भाव की पुष्टि होती है। पण्डित जी | और पूज्य हैं। पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी भी इसकी ने तर्क किया कि सम्यक्त्वपने से पूज्य मानते हो तो | पुष्टि करते हैं। आचार्य श्री शांतिसागर जी ने भी शासन सर्वार्थसिद्धि के देव, लौकान्तिक देवों को क्यों नहीं पूजते। देवी-देवताओं की उपासना का निषेध किया था। पण्डित जी के हार्द को समझे (पृ. १६८-१७५)। । किसी देवी-देवता को, वर-की इच्छा या बिना
___ विद्वान् मनीषी श्री पण्डित सदासुखदास जी | इच्छा के, आप्त-जिनदेव मानना या उनकी पूजा-उपासना कासलीवाल जी ने श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार जी की ढूँढारी | करना पूर्व जन्म के तीव्र मिथ्यात्व-भाव के संस्कार का भाषा में टीका लिखी। आपने श्लोक २३, (पृष्ठ ४३- | द्योतक है। यह जिनधर्म का अवर्णवाद है। सम्यक्त्व हेतु ४८) की टीका में लिखा- जो व्यंतर-क्षेत्रपालादि को | जिनदेव के स्वरूप का सच्चा-पक्का निर्णय करना ही अपनी सहायता करने वाला मानते हैं, सो यह मिथ्यात्व | सच्ची दिग्विजय है, बाकी सब इस भव की पराजय के उदय का प्रभाव है। प्रथम तो भवनवासी, व्यंतर और | | है। विज्ञ जन मार्ग दर्शन करें। ज्योतिषी इन तीन प्रकार के देवों में मिथ्यादृष्टि ही उत्पन्न ।
1वृक्ष 100 संतान
रामटेक से छिंदवाड़ा की ओर बिहार करते हुए चले आ रहे थे। धूप होने की वजह से रास्ते में बैठने के भाव हो रहे थे, लेकिन बहुत दूर-दूर तक कोई भी छायादार वृक्ष दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ दूर और चलने पर देखा आचार्यश्री जी एक पेड़ के नीचे बैठे थे। हम लोगों को देखकर आचार्य महाराज ने कहा-आओ महाराज बैठ लो, अब थोड़ा और चलना है। हम दोनों महाराज आचार्य महाराज के समीप जाकर बैठ गये। जो साथ में महाराज थे, उन्होंने कहा हम लोग अभी यही चर्चा कर रहे थे कि कितना चलना होगा। आचार्य श्री तो कुछ आहार में लेते भी नहीं और इतना चलते भी हैं, तो आचार्य महाराज हँसकर कहते हैं, "कुछ लेना ना देना मगन रहना।" हम तो तुम जवानों को देखकर चलते रहते हैं, तो हम लोगों ने कहा हम आपको देखकर चलते रहते हैं।
फिर बोले-बहुत देर बाद एक छायादार वृक्ष मिला। अब तो मानना होगा 1 वृक्ष 100 संतान के बराबर होता है। देखो कितने लोग इसकी छाया में बैठकर शांति का अनुभव कर रहे हैं। आज वृक्षों को काटकर नगर बसाये जा रहे हैं। लेकिन प्रकृति के बिना मानव सुरक्षित नहीं रह सकता। मानव को इस ओर भी ध्यान रखना चाहिए।
मोक्षमार्ग की साधना चार प्रत्ययों में पूर्ण होती है, अज्ञाननिवृत्ति, हान (विषय त्याग) उपादान (व्रत ग्रहण) एवं उपेक्षा (विकल्पों की शून्यता)।
मुनि श्री कुंथुसागरकृत 'संस्मरण' से साभार
जनवरी 2008 जिनभाषित 17
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