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________________ यह प्रश्न है । " दूसरा तर्क यह है कि ये जिन शासन के रक्षक हैं। किन-किन धर्मात्माओं ने इनकी पूजा-आराधना की और किन-किन की सहायता, सेवा-रक्षा इन देवी-देवताओं ने की, इसका एक भी उदाहरण जैन पुराणों में नहीं है । सती सीता|--- • समंतभद्र आदि सब जीव परम सम्यक् दृष्टि थे । उन्होंने जिनेन्द्र की आराधना - स्मरण किया, तब देवता सेवा को आये । जिनेन्द्र की आराधना पर ये स्वयं आये हैं, तो आयेंगे। फिर इनकी आराधना का उपदेश क्यों ? वर्तमान के पंचकल्याण महोत्सवों की विद्रूपता दर्शाते हुए पण्डित जी ने लिखा है कि मूल पंचकल्याणक को सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से अन्य देवी-देवताओं ने सम्पन्न किया था। अतः यह पंचकल्याणक उसका रूपक है। अब इसमें सौधर्मेन्द्र से इन छोटे-छोटे देवी-देवताओं की पूजा कराते हैं, यह कहाँ तक उचित है ? आज्ञादाता को सेवक / पूजक बना दिया। अतः पंचकल्याण-प्रतिष्ठापाठों में इनकी चर्चा कर इनकी पूजा अर्चा का विधान भी शास्त्रों का विपरीत अर्थ करके मिथ्यात्व का खरा पोषण किया है। पद्मावती -ज्वालामालिनी देवियों के स्वरूप और उनके पूजा-विधान को दृष्टिगत कर पण्डित जी लिखते हैं कि- "इनकी पूजा आराधना विधि जप मंत्र में गधे के रक्त, कुत्ते के रक्त, काकपत्र, श्मसान - हड्डी, मुर्दे के वस्त्र आदि हिंसक घृणित पदार्थों के उपयोग का विधान है। देखिये ये कैसे जिनशासन देव हैं या जिन शासनदेव कह कर आपको मिथ्यात्व की ओर ढकेला जा रहा है।" "लघु विद्यानुवाद ग्रंथ' किस आधार पर बनाया गया? उसकी क्या प्रमाणिकता है? आगे पण्डित जी लिखते हैं " फिर जिनबातों का संबंध जिनागम से विरुद्ध वीतरागजिन के सिवाय रागी-द्वेषी कुदेवों की आराधना है और आराधना हिंसक द्रव्यों से है, तो वह जिनागम कैसे हो सकता है?" निष्कर्ष - " वीतरागी के सिवाय अन्य देव ( पूर्व वर्णित पद्मावती, भैरव, यक्ष, क्षेत्रपाल आदि -आदि ) पूज्य नहीं और अहिंसामूलक क्रियाओं के सिवाय हिंसा पूर्ण क्रियाएँ जिनागम मान्य नहीं। इस तरह शासन - देवों के नाम से कुदेवपूजा कभी ग्राह्य नहीं हैं।" Jain Education International तीर्थंकरप्रकृति के उदय के निमित्त से तीर्थंकर भगवंतों की दिव्यध्वनि समवशरण सभा मैं खिरती है समवशरण सभा की रचना सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुवेर द्वारा देव - देवियों की सहायता से की जाती है। समवशरण में सामान्यभूमि से गंधकुटी तक इकतीस अधिकार होते हैं। व्यवस्थानुसार छठवें अधिकार के चार तोरण द्वारों की रक्षा ज्योतिषीदेव करते हैं। तेरहवें अधिकार के दूसरे कोट की रक्षा यक्षदेव करते हैं। सोलहवें अधिकार की तीसरी वेदी की रक्षा यक्षदेव करते हैं, इक्कीसवें अधिकार की चौथी वेदी की रक्षा भवनवासीदेव करते हैं और चौवीसवें अधिकार के चतुर्थ कोट की रक्षा कल्पवासी देव करते हैं । अट्ठाईसवें अधिकार की पीठ पर चारों दिशाओं में चार यक्षेन्द्र सिर पर धर्मचक्र रखे रहते हैं । अभव्य जनों के मनोरंजन हेतु नाटयशालाएँ होती हैं। सातवें अधिकार की ३२ रंग - भूमियों में ३२ भवनवासी कन्याएँ नृत्य करती हैं, पंद्रहवें अधिकार की सोलह नाट्य शालाओं में आदि की आठ में भवनवासी और आगे की आठ में कल्पवासी देवकन्याएँ नृत्य करती हैं। बीसवें अधिकार की सोलह नाटयशालाओं में ज्योतिषीदेवकन्याएँ नृत्य करतीं हैं। समवशरण के बारह कोठे होते है पहले में गणधर मुनि आदि, दूसरे में कल्पवासी देवियाँ, तीसरे में आर्यिका एवं श्राविकाएँ, चौथे से छठे में क्रमशः ज्योतिषी, व्यंतर एवं भवनवासीदेवियाँ, सातवें से दश तक क्रमशः भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासीदेव, ग्यारहवें में मनुष्य एवं बारहवें में समस्त तिर्यंच जीव बैठ कर प्रतिदिन तीन बार ६-६ घड़ी दिव्यध्वनि सुनते हैं। जैसे ही तीर्थंकर भगवान् योगनिरोध करते हैं, समवशरण सभा बिखर जाती है। सभी यक्ष, यक्षी, देव - देवियाँ, इन्द्र-इन्द्राणियाँ, मनुष्य आदि अपने-अपने स्थान पर पहुँचकर अपना सहजनित्य कर्म करने लगते हैं । इस दृष्टि से, कथित शासन-रक्षकदेव को अपने भवनों में पहुँचकर अपनी आयु के अनुसार पर्याय में रहकर अन्य पर्यायों को धारण करते हैं। पर्यायगत कर्तव्य उसी पर्याय में समाप्त हो जाता हैं। वे अमर नहीं होते अतः उनका कर्त्तव्य भी अमर नहीं रहता । सभी संसारी जीव अपनी आयु से बंधे हैं। उनकी पूजा क्यों ? आचार्यकल्प पं० टोडरमल जी ने सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका, त्रिलोकसार आदि ग्रंथों की ढूँढारी भाषा में टीका लिखी । उच्च नैतिकता, प्रमाणिकता एवं आगम निष्ठा के प्रकाश जनवरी 2008 जिनभाषित 16 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524324
Book TitleJinabhashita 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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