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जिनदेव और मिथ्यादेव की सच्ची समझ ही दिग्विजय
डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल महान् कवि, वैद्य, वादी, वाग्मी, गमक, वादिमुख्य । में आप्त की उपासना इच्छा-रहित की जाती है। लक्ष्य आदि पदवियों से विभूषित स्याद्वादी स्वामी समन्तभद्र | वीतरागता की प्राप्ति होता है। अतः लौकिक कामना की ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि जिस आप्त की| दष्टि से आप्त की पूजा करना आप्त को कदेव बनाना परीक्षा करने उन्होंने ने महान् दार्शनिक कृति 'देवागमस्तोत्र' | है। कुदेव की पूजा वर की इच्छा से होती है। बिना की रचना की, वही आप्त कालांतर में रागी-द्वेषी देवी- | वर-की इच्छा के रागी-द्वेषी देवता की पूजा का कोई देवताओं का पर्यायवाची बन जायेगा। यह कार्य कोई | औचित्य ही नहीं होता। इसी कारण श्लोक में वर-इच्छा धर्मविद्वेषी नहीं करेंगे, किन्तु धर्म के नामपर जिनेन्द्रभक्तों | का लक्ष्य लिखा है। इसका अर्थ यह नहीं कि बिना द्वारा ही किया जायेगा, यह इसकी विशिष्टता होगी। | वर-की-इच्छा के रागी-द्वेषी देवता की पूजा करना आगम
स्वामी समन्तभद्र ने श्रावकों को वीतरागता की | सम्मत है, जैसा कि कतिपय विद्वानों का मत है। जिनागम प्राप्ति हेतु रत्नकरण्डश्रावकाचार नामक ग्रंथ की रचना | में तो 18 दोषरहित देव ही पूज्य है, इस आदेशसूत्र को की। श्लोक 3 में धर्म-अधर्म का लक्षण लिखा और विस्मरण करना जिनागम से बाह्य विचार और आचरण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता को धर्म कहा। श्लोक | है। इस प्रकार श्लोक 23 किसी भी रूप से रागी-द्वेषी 4 में सच्चे आप्त-आगम-गुरुओं के श्रद्वान को सम्यग्दर्शन | देवता की, भले ही वे किसी भी गुणस्थान के हों, पूजा कहा। श्लोक 5 से 7 तक में आप्त (सच्चेदेव) का | की अनुमति नहीं देता। सामान्य-विशेष लक्षण बताया। सच्चे देव का निर्णय ही सम्यक्त्व का महत्त्व दर्शाते हुए, श्लोक 27 में वह केन्द्र बिन्दु है, जिसके चारों और वीतरागी श्रमणसंस्कृति | कहा है कि जब सम्यक्त्व से पाप का निरोध होता है, का धर्मचक्र प्रवर्तित होता है। अतः आप्त का निर्धारण | तो अन्य सम्पदा का क्या प्रयोजन? स्पष्ट है कि महत्त्वपूर्ण है। अठारह दोषों से रहित सर्वज्ञ, आगम का सम्यक्त्वधारक व्यक्ति सम्पदा के प्रयोजन की इच्छा नहीं ईश (उत्पादक) आप्त होता है। उसे ही परमज्योति | | रखता। उसकी सम्पदा तो सम्यक्त्व ही है। श्लोक 28 परमेष्ठी, विराग, विमल, कृती, सर्वज्ञ, अनादिमध्यान्त, | में सम्यक्त्वसहित चाण्डाल को देवतुल्य कहा है, ऐसा सार्व, शास्ता आदि कहते हैं। ऐसे आप्त की दिव्यध्वनि | गणधर देव कहते हैं। श्लोक 29 में कहा है कि सम्यग्दर्शन से राग-द्वेषविहीन मोक्ष और मोक्षमार्ग का जो उपदेश से युक्त कुत्ता स्वर्ग में जाकर देव हो जाता है, और नि:सृत हुआ वह आगम है। और आगमानुसार विषय | पाप अर्थात् मिथ्यादर्शन से देव भी कुत्ता हो जाता है। कषायों की आसक्तिरहित, आरम्भ-परिग्रह-रहित, ज्ञान- | श्लोक क्रमांक 28 और 29 में सम्यग्दर्शन की महिमा ध्यान-तप में लीन तपस्वी गुरु कहलाते हैं। इस मापदण्ड | बताई है। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में खेवटिया के समान के अनुरूप जो नहीं हैं, वे आप्त-आगम-गुरु नहीं है, | है। सम्यक्त्व के न होने पर सम्यग्ज्ञान और सम्यकचरित्र यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है।
की उत्पत्ति नहीं होती (श्लोक 31-32)। सम्यक्त्वयुक्त स्वामी समन्तभद्र ने श्लोक 11 से 21 तक सम्यक्त्व गृहस्थ मोक्षमार्गी है जब कि मिथ्यात्वयुक्त मुनि मोक्षमार्गी के अंगों का वर्णन किया है। श्लोक 22 से 26 तक | नहीं है। फलितार्थ यह है कि सम्यक्त्वसहित व्रत-संयमसम्यक्त्व के दोष, यथा-लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता, पाखण्डमूढ़ता | तप मोक्षमार्ग में कार्यकारी है। ये श्लोक देवी-देवताओं और आठ मदों का वर्णन किया है, पश्चात् श्लोक 27 | को आप्त (सच्चेदेव) सिद्ध करने में सहायक नहीं है, से 41 तक सम्यग्दर्शन का माहात्म्य दर्शाया है। क्योंकि सम्यक्त्वसहित जीव मोक्षमार्गी होता है, इस दृष्टि
श्लोक 23 में बताया गया है कि लौकिक इच्छाओं | से चारों गतियों के सम्यक्त्वधारी जीव समानरूप से की पूर्ति हेतु (वर की इच्छा से) राग-द्वेष युक्त मलिन | प्रशंसनीय हैं। भवनवासी, व्यंतर देव-देवियों की कोई देवताओं की उपासना करना देवमूढ़ता अर्थात् देव | विशेषता नहीं। (सच्चेदेव) के प्रति अज्ञान (मूढ़ता) है। जिनेश्वरी मार्ग | श्लोक 30 पुनः इस तथ्य की पुष्टि करता है
जनवरी 2008 जिनभाषित 14
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