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संयम की भावनाओं से जुड़ा रहता है। यह कार्य सिर्फ । चर्या में इन पंखों से बनी पिच्छिका प्राणवत् मानी गई है। बाहरी लेन-देन का नहीं, बल्कि हृदयपरिवर्तन का कार्य | शौचोपकरण कमण्डलु के बिना फिर भी कुछ दिन मुनि है। अपनी जीवन-चर्या को सात्त्विक/संयमित बनानेवाले | काम चला सकता है। विहार में कमण्डलु हाथ में या साथ कुछ श्रावक गृहस्थ, मुनिगणों को नई पिच्छिका प्रदान करते | में न भी हो तो भी चल सकता है किन्तु पिच्छिका के हैं और कुछ पुरानी पिच्छिका ग्रहण करते हैं। संयम के | बिना मुनि का विहार कहीं हो ही नहीं इस सम्पर्ण कार्य में वैराग्य और निर्ममत्त्व की प्रेरणा मिलती | मनि की अत्यंत आवश्यक उपकरण मानी गई है। जिसे है। अत्यन्त कोमल, नयनाभिराम व सुन्दर होते हुए भी | मुनिगण हमेशा अपने पास में रखते हैं। जब मयूर अपने पंखों का यथासमय स्वाभाविक रूप से कमण्डलु ज्यादा दिनों तक चलता है, इसलिए उसे त्याग कर देता है, उससे मोह नहीं करता, तब हमें भी | पिच्छिका की तरह प्रतिवर्ष बदलने की जरूरत नहीं पड़ती। वह पंख और पंखों से बनी पिच्छिका हमेशा-हमेशा वैराग्य | टूट-फूट हो जाने पर कमण्डलु भी बदला जा सकता है, और अपरिग्रह की प्रेरणा देती रहती है। अन्य पक्षियों के | पर पिच्छिका पुरानी हो जाने के कारण, पंखों की मृदुतापंख को अशुद्ध, अस्पृश्य माना गया है लेकिन मयूर पंख | सुकुमारता खत्म हो जाने के कारण प्रतिवर्ष बदलना की विशेषतायें कुछ अलग ही हैं। ज्ञात अज्ञात हैं ही कुछ आवश्यक ही हो जाती है। किसी परिस्थिति वश बीच में ऐसी विशेषतायें जिनके कारण दिगम्बरजैन मुनि ने इसे | भी बदली जा सकती है। प्रयोजन सिर्फ इतना है कि स्वीकृत किया है। वैसे भी मयूरपंख में विद्या की कल्पना | जीवरक्षा के अहिंसक उद्देश्य की पूर्ति होना चाहिए। इस की जाती है और बाल-विद्यार्थी इसे विद्या मानकर पुस्तकों | तरह पुरानी-पिच्छिका अलगकर नई ग्रहण करना ही में रखते हैं। यदुवंश-शिरोमणि श्रीकृष्ण जी तो मोर- | पिच्छिका-परिवर्तन है। मुकुटधारी के नाम से प्रसिद्ध ही है। दिगम्बरजैन मुनि की ।
आत्म-विश्वास ईसरी में वर्षायोग पूरा हुआ। आचार्य महाराज ने । कलकत्ता में प्रवेश किया तब हजारों लोग उनके दृढ़कार्तिक पूर्णिमा के दिन कलकत्ता में प्रतिवर्ष होने वाले | संकल्प के सामने सिर झुकाए खड़े थे। उस दिन वह भगवान् पार्श्वनाथ के उत्सव में पहुँचने का मन बना महानगर, महाव्रती दिगम्बरजैन आचार्य की चरण-धूलि लिया, लेकिन हमेशा के अपने अतिथि-स्वभाव के | पाकर पवित्र हो गया। अनुरूप किसी से बिना कुछ बताये कलकत्ता की ओर बड़ा मंदिर से बेलगछिया तक हजारों लोगों के चल पड़े। लोगों में तरह-तरह की चर्चाएँ होने लगीं। बीच उनका सहज भाव से गुजरना आम आदमी के मार्ग दुर्गम है। मार्ग में श्रावकों के घर नहीं है। बड़ा | लिए अद्भुत घटना थी। देखने वालों ने उस दिन यही अशान्त क्षेत्र है। बंगाल के लोग पता नहीं कैसा व्यवहार | कहा कि वेशकीमती साजो-सामान और विशाल जुलूस करेंगे। महाराज को वहाँ नहीं जाना चाहिए। के बीच अनेक श्रमणों से परिवेष्टित जैनों के एक महान ___कलकत्ता से श्रावक आए। निवेदन किया कि आचार्य का दर्शन करके हम धन्य हो गए। उस दिन "बंगाल सुरक्षित प्रदेश नहीं है। आप वहाँ पधारें, ऐसी | दुकानों पर खड़े लोगों और मकान के छज्जों से झाँकती हम सभी की भावना तो है, लेकिन भय भी लगता है।" | हजारों आँखों ने बालकवत् यथाजात निर्ग्रन्थ श्रमण के आचार्य महाराज हमेशा की तरह मुस्कराए, अभय-मुद्रा | पवित्र सौन्दर्य को देखकर और कुछ भी देखने से इंकार में हाथ उठाकर आशीष दिया और आगे बढ़ गए। कर दिया।
यात्रा चलती रही। निरन्तर बढ़ते कदमों में गूंजता सचमुच, विद्या-रथ पर आरूढ़ होकर, ख्याति, मंगल गान, लोगों के मन को आगामी मंगल का | पूजा, लाभ आदि समस्त मनोरथों को रोककर, जो
आश्वासन देता रहा और देखते-देखते साढ़े तीन सौ | श्रमण-भगवन्त विचरण करते हैं, उनके दृढ़-संकल्प से किलोमीटर की दूरी दस दिन में तय हो गई। ग्यारहवें धर्म-प्रभावना सहज ही होती रहती है। दिन जब अपने संघ के साथ आचार्य महाराज ने । मनि श्री क्षमासागरकत, 'आत्मान्वेषी' से साभार
- नवम्बर 2007 जिनभाषित 5
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