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________________ पिच्छिका-परिवर्तन : आवश्यकता और उद्देश्य मुनि श्री समतासागर जी संघस्थ- आचार्य श्री विद्यासागर जी दिगम्बरजैन मुनि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य । पिच्छिका प्रशंसनीय है। पिच्छिका में लगे मयूरपंख धूलि और अपरिग्रह आदि श्रेष्ठ व्रतों का पालक होता है। ऋषि- | और पसीना, पानी आदि लग जाने पर थोड़ी ही देर में परम्परा में जैनमुनि की अपनी एक मुद्रा है, पहचान है। पूर्ववत् स्वच्छ हो जाते हैं। बहुत मुलायम होते हैं, उसके मद्रा सर्वत्र मान्य रही है। फिर चाहे वह शासकवर्ग हो, बालों का स्पर्श चींटी आदि जीवों को कष्टकर नहीं, बल्कि धार्मिकवर्ग हो अथवा व्यापरिकवर्ग हो। सर्वत्र मुद्रा (चिह्न) | सुकुमारता के कारण सुखद प्रतीत होता है। पंख, भार में को मान्यता, पूज्यता मिली है। सभी धर्म-सम्प्रदायों में हल्का भी होता है। मयूर पक्षी पंख को स्वयमेव छोड़ते साधकों की अपनी-अपनी पहचान है। करपात्री, पदयात्री हैं, उन्हें पाने में मयूर की किसी तरह से हिंसा नहीं होती। दिगम्बरजैन मुनि का स्वरूप भी निर्धारित है। नग्नत्व, ऋतु के अनुसार मयूर अपने पंखों का परित्याग प्रतिवर्ष केशलोच, शृंगार-रहितता, अपरिग्रहता, हिंसादि सावध कार्य | करते हैं। उनके शरीर पर आए बड़े-बड़े और बहुत सारे से रहित और पिच्छिका यह मुनि का बाहरी स्वरूप है। पंख उनके गमनागमन में बाधक बनने लगते हैं। उनका इस मुनिचर्या में पिच्छिका, कमण्डल और शास्त्र क्रमशः | भार मयूर को कष्टकर हो जाता है। इसलिये मयूर उन संयम-पालन, शुद्धि और ज्ञानाराधना के लिए आवश्यक पंखों को अपनी सुख-सुविधा के लिए स्वेच्छा से ही छोड उपकरण बतलाये गए हैं। जो साधना में सहायक/उपकारक देते हैं। इसमें कोई प्रेरणा नहीं, उनकी प्रकृति है,स्वाभाविकता हो, वह उपकरण कहलाता है। कमण्डलु नारियल का रहता है। इन गिरे हुये पंखों को वनों में मुनिगण ग्रहण कर लेते है, यदा-कदा लकड़ी का भी उपयोग में ले सकते हैं। हैं। श्रावकजन भी इन्हें प्राप्तकर मुनिगणों के पास तक नियम यह है किसी धातु आदि का नहीं होना चाहिए। भिजाते हैं। प्राप्त पंखों से मुनिगण अपनी पिच्छिका तैयार क्योंकि वह गृहस्थों के काम में आ सकते हैं। कमण्डलु कर लेते हैं। एक वर्ष तक चलाने के लिए करीब 500में मुनिगण प्रासुक (गर्म) जल रखते हैं, जिसका उपयोग 700 पंखों की पिच्छिका तैयार कर ली जाती है, ताकि वह मात्र बाह्य शुद्धि में करते हैं। वह वर्ष भर आसानी से चल सके। पंखो को सम्हालकर पिच्छिका दिगम्बरजैन साधु का अत्यंत महत्त्वपूर्ण | रखने के लिए उन्हें बाँधकर रखा जाता है। पिच्छिका का उपकरण है जिसके बिना जैन साधु गमनागमन, पठन-पाठन | परिमार्जन (कोई कार्य करते समय पिच्छिका से साफ कर आदि कोई प्रवृत्ति नहीं कर सकता। पिच्छिका प्रतिलेखन लेना) में उपयोग करते हैं, और ऐसा उपयोग करते-करते अर्थात् परिमार्जन में सहायक है। स्थूल जीव-जन्तु तो | पिच्छिका के पंखों की मृदुता खत्म हो जाती है। करीब चलते-फिरते दिख जाते हैं, किन्तु बहुत से ऐसे सूक्ष्म जीव- | एक वर्ष तक उपयोग होते-होते पंख भी पुराने हो जाते जन्तु हैं जो रहते तो हैं, पर आँखों से दिखाई नहीं देते। | हैं। चातुर्मास के अन्त में इसे बदलकर नई पिच्छिका ग्रहण ऐसे उन समस्त सूक्ष्म-स्थूल जन्तुओं को अपने उठने-बैठने | कर ली जाती है। इस तरह पुरानी पिच्छिका अलगकर नई आदि प्रवृत्ति से कोई कष्ट नहीं हो, उन सब की रक्षा हो को ग्रहण कर लेना ही पिच्छिका-परिवर्तन है। इस भाव से पिच्छिका से परिमार्जन (बिना बाधा के उनको। यह कार्य वैसे व्यक्तिगत भी हो सकता है, पर समाज दूर करना, उनका संरक्षण करना) किया जाता है। यह | के बीच संघ रहते हैं, समाज की संयम के इस उपकरण पिच्छिका मयूरपंख की ही बनती है। अन्य पक्षियों के पंखों के प्रति बहुत आस्थाएँ जुड़ी रहती हैं अतः सभी जगह में वह विशेषता नहीं रहती जो मयूरपंख में रहती है। साधु-साध्वी संघों में चातुर्मास के अन्त में यह पिच्छिका जैनशास्त्र मूलाराधना में लिखा है परिवर्तन का कार्यक्रम समारोहपूर्वक रखा जाता है। जो रजसेदाणमगहणं मद्दवसुकुमालदा लघुत्तं च। । व्यक्ति कुछ नियम-संयम लेकर (मुख्यरूप से ब्रह्मचर्य जत्थेदे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसंति॥ | व्रत) धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ता है, उसे पुरानी पिच्छिका जो धूलि और पसीना को ग्रहण न करती हो, मृदु | प्रदान कर दी जाती है, जिससे वह ग्रहण किए गए संयम हो, सुकुमार हो अर्थात् कठोर न हो और हल्की हो ऐसी | की स्मृति-स्वरूप उसे अपने घर में रखता है और सदा 4 नवम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524322
Book TitleJinabhashita 2007 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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