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________________ एक चींटी पेड़ पर चढ़ जाती है, लगन की यही अदा हमें भाती है। कामयाब होंगे हम भी एक दिन, दूर की मंजिल पास नजर आती है। आज विडम्बना है कि जिन्हें पुरुषार्थ का सम्यक् पाठ पढ़ाना था, वे ही पुरुषार्थ के स्थान पर उन खोटी प्रवृत्तियों में उलझा रहे हैं, जहाँ पतन और निराशा के अतिरिक्त कुछ भी मिलनेवाला नहीं है। कोई ग्रहों का चक्कर बता रहा है, तो नवग्रह मंदिर बनाकर, पूजा-विधान रचकर भगवानों-तीर्थंकरों को भी विभाजित कर रहा है. जबकि ग्रह अपनी गति से चलते हैं, चलना उनका स्वभाव है, चमकना उनका स्वभाव है. लेकिन बलिहारी है उन शिथिलाचारी संतों की, जो प्रेरक बनकर नवग्रह तीर्थों की रचना कर रहे हैं और तीर्थंकरों में से ही दो इस ग्रह को शांत करेंगे, तो दो इस ग्रह को, इसतरह का मिथ्या उपदेश दे रहे हैं। कोई पूछे तो इनसे कि आचार्य नेमिचन्द्र क्या कहते हैं और आप क्या कह रहे हैं? असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वद-समिदि-गुत्तिरूवं, ववहारणया दु जिण भणिय।। अर्थात् अशुभक्रिया से निवृत्ति और शुभक्रिया में प्रवृत्ति चारित्र है। वह चारित्र व्रत, समिति, गुप्तिरूप है। यह ध्यातव्य है कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह-रूप क्रियाएँ अशुभ मानी गयी हैं। मन-वचन-काय की दुष्प्रवृत्ति, अभक्ष्य खान-पान, अविवेक-अयत्नाचार रूप प्रवृत्ति अशुभ क्रियाएँ हैं। पाँच व्रतरूप क्रियाएँ शुभ मानी गयी हैं। विवेकसम्मत यत्नाचाररूप प्रवृत्ति, योगी की शुभप्रवृत्ति, पंचेन्द्रिय विषयों में आसक्ति का अभाव, देवशास्त्र-गुरु की वंदना, पूजा, दान, व्रताचरण आदि शुभ प्रवृत्तियाँ हैं। इनके लिए किया गया प्रयत्न ही सम्यक् पुरुषार्थ माना जाता है। आचार्यश्री सकलकीर्ति ने लिखा है भाति लब्धविषयव्यवस्थिति(मतां लसत लभ्यनिष्ठितिः। तदद्वयेष्टपरिपूरणास्थितिः सञ्जयेत्तुं महतामहो मतिः॥ अर्थात् प्राप्त विषयों (भोगों या पदार्थों) की व्यवस्था करना तो सभी को सुहाता है और विद्वान् को अप्राप्त को प्राप्त करने की श्रद्धा हुआ करती है, किन्तु इन दोनों का समुचित रूप से प्राप्त होते रहना महात्माओं के लिए समीचीन मार्ग है। इसी का अनुसरण हम सभी को करना है, तभी सम्यक् पुरुषार्थ होगा। इसी से तेज, प्रताप, प्रसन्नता एवं शांति का पथ प्रशस्त होगा? एक सच्चा जैनी भाग्य को नकारता नहीं और कर्म-पुरुषार्थ को भूलता नहीं है। हमारे सामने हमारे 24 तीर्थंकरों की पुरुषार्थ परम्परा है, इसी परम्परा का वरण करें और खोटे मार्ग और खोटी प्रवृत्तियों का त्याग करें। डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' चरणकमल और करकमल छपारा नगर में पंचकल्याणक के समय की यह बात है। एक दिन आचार्य गुरुदेव कक्ष में सामायिक में बैठे हुए थे। उसी समय कुछ जैनेतर बंधु आये और नमस्कार करते हुये गुरुदेव के श्री चरणों में श्रीफल समर्पित किया, दर्शन करके बहुत हर्षित हुए। साथ ही साथ वे कुछ अपने भावों को एक कागज में लिखकर लाये। चूँकि आचार्य श्री जी सामायिक में बैठे हुए थे, सज्जन ने उनके हाथों पर कागज रखा और नमस्कार करके चल गये। सामायिक पूर्ण होने के उपरान्त आचार्यश्री ध्यान मुद्रा से उठे तब सभी महाराज जी वहाँ पहुँचे। आचार्य श्री जी ने कहा- वे यह नहीं जानते कि महाराज सामायिक कर रहे हैं । वे तो मात्र यही जानते हैं कि भक्तिभावपूर्वक नमस्कार करना चाहिए। एक चरणकमल होते हैं और एक करकमल होते हैं, इसलिए दोनों का उपयोग करके, लाभ उठाकर चले गये। मुनि श्री कुंथुसागर संकलित 'संस्मरण' से साभार - नवम्बर 2007 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524322
Book TitleJinabhashita 2007 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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