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________________ अत्राह प्रभाकर भट्टः- तर्हि ये केचन पुण्यपापद्वयं | अमृतचन्द्र की निम्नलिखित टीका के अनुसार शुभोपयोग समानं कृत्वा तिष्ठति, तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति? | (पुण्य) को पापवत् हेय न मानते हुये, शुभोपयोग की भगवानाह-यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं त्रिगुप्तिगुप्त वीतराग- | मुख्यता ही रखनी चाहिये। टीका-'गृहिणां तु समस्तविरतेरनिर्विकल्प-परमसमाधिं लब्ध्वा तिष्ठति तदा संमतमेव। भावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्कषायसद्भावात्प्रवर्तमानोऽपि यदि पुनस्तथाविधामवस्थामलभमाना अपि सन्तो गृहस्थाव- | स्फटिक संकणार्कतेजस इवैधसां रागसंयोगेनाशुद्धात्मनोऽनुभस्थायां दानपूजादिकं त्यजति तपोधनावस्थायां षड़ावश्यादिकं | वात् क्रमतः परमनिर्वाण-सौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः।' च त्यक्त्वोभयभ्रष्टाः सन्तः तिष्ठति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम्। अर्थ- वह शुभोपयोग गृहस्थों के तो सर्वविरति के अर्थ- ऐसा सुनकर प्रभाकर भट्ट कहता है- यदि ऐसा न होने से शुद्धात्मप्रकाशन के अभाव के कारण कषाय ही है तो कितने ही पुण्य-पाप दोनों को समान मानकर के सदभाव में प्रवर्तमान होता हआ, जैसे ईंधन को स्फटिक स्वच्छंद हये रहते हैं, उन्हें आप दोष क्यों देते हैं? तब | के संपर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है इसी प्रकार योगीन्द्रदेव ने कहा-जब शुद्धात्मानुभूति स्वरूप तीन गुप्ति | राग के संयोग से अशुद्ध आत्मा का अनुभव होने से, क्रमशः से गुप्त वीतराग-निर्विकल्प समाधि को पाकर ध्यान में | परमनिर्वाणसुख का कारण होने से, मुख्य है। अर्थात् गृहस्थों मग्न हुये पुण्य-पाप को समान जानते हैं, तब तो उचित | के शुभोपयोग की मुख्यता है। है। परन्तु जो मूढ़ परमसमाधि को न पाकर भी गृहस्थ जिज्ञासा- देव-लोग किस भाषा में बोलते हैं? अवस्था में दान-पूजा आदि शुभ क्रियाओं को छोड़ देते समाधान- शास्त्रों में ऐसा कोई वर्णन पढने में नहीं हैं, और मुनिपद में छह आवश्यकों को छोड़ देते हैं, वे आया कि देवों की भाषा कौनसी है? इस प्रश्न को मैंने दोनों ओर से भ्रष्ट हैं, तब उनको दोष ही है। पू. आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज से एक बार निवेदन उपर्युक्त प्रकरण से स्पष्ट है कि परमसमाधिकाल | किया था, तब उन्होंने कहा था कि संस्कृत को देववाणी में दोनों को हेय मानना उचित कहा गया है। हम गृहस्थियों | कहते हैं। अतः शायद देव संस्कृत में बोलते हों। इसका के लिये तो पुण्य तथा पाप में समानता कैसे हो सकती | कोई आगमप्रमाण उपलब्ध नहीं होता। है? हम गृहस्थियों को तो 'प्रवचनसार' गाथा 254 की आ. | 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा- 282002 (उ.प्र.) गुरु के गुण अपार गुरुदेव को सूरज कहूँ तो, सूरज में आग है, गुरुदेव को चन्दा कहूँ तो चन्दा में दाग है, गुरुदेव को सागर कहूँ तो सागर में झाग है, पर सच पूछो तो गुरुदेव में वैराग्य ही वैराग्य है। सूरज के दर्शन से नीरज खिल जाता है, पारस के स्पर्शन से लोहा सोना बन जाता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, बंधुओं, विद्यासागर के दर्शन से पापी भी, परमात्मा बन जाता है। 5 जो जल से भरा है, उसे सागर कहते हैं, जो रत्नों से भरा है, उसे रत्नाकर कहते हैं, जो तम को भगा देता है, उसे दिवाकर कहते हैं, जो गुणों से लबालब भरा है, उसे विद्यासागर कहते हैं। माता तो तन को जन्म देती है, जिनवाणी माँ शिवपथ ही दिखा देती है, पर बंधुओं गुरु की कृपा तो, मोक्ष जाने तक साथ देती है। 3 माता के भी उपकार चुका सकते हैं, दाता के भी उपकार चुका सकते हैं, पर करोड़ों जीवन में भी, गुरुदेव के उपकार को चुका नहीं सकते हैं। सङ्कलन सुशीला पाटनी आर.के. हाऊस, मदनगंज-किशनगढ़ नवम्बर 2007 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524322
Book TitleJinabhashita 2007 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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