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________________ अतः हम सभी को इन मूर्तियों पर सर्प का फण । पाप की परिभाषा देख लेनी चाहिये। श्री सर्वार्थसिद्धि या बेलों के अंकन को उचित मानते हुये, पूर्ण भक्ति-भाव | अ.६/३ की टीका में इनकी परिभाषा इस प्रकार कही गई से वंदना, पूजा करना योग्य है। यह भी विशेष है कि भगवान् | हैपार्श्वनाथ तथा भगवान् सुपार्श्वनाथ की मूर्ति पर यदि सर्प | 1. पुण्य- पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्। का फण न बनाया जाय, तो भी कोई आपत्ति नहीं, इनका अर्थ- जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे अंकन नियामक नहीं मानना चाहिये तथा ऐसी धारणा भी | आत्मा पवित्र होती है, वह पुण्य है। नहीं बनानी चाहिये कि उपसर्ग दूर करनेवाला होने से 2. पाप- पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्। धरणेन्द्र की महत्ता बताने को इस प्रकार की मूर्तियाँ बनाई | तदसद्वेद्यादि।। जाती हैं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ऐसी | अर्थ- जो आत्मा को शुभ से बचाता है, वह पाप फणोंवाली मूर्तियों पर अभिषेक करते समय, फणों के ऊपर | है। जैसे- असातावेदनीय आदि। से जल की धारा न डालकर, भगवान् के मस्तक पर ही पुण्य तथा पाप के फल के संबंध में श्री धवला जल की धारा देनी चाहिये। | पु. 1 पृष्ठ 105 में इस प्रकार कहा हैप्रश्नकर्ता- मनोज जैन, अजमेर (अ) काणि पुण्ण फलाणि। तित्थयर गणहर रिसिजिज्ञासा- सर्प चार इन्द्रिय होता है। उसके कान | चक्कवट्टि-वलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहर रिद्धिओ।। नहीं होते। वह सुनता भी नहीं है, ऐसा विज्ञान बताता है। अर्थ- पण्य के फल कौनसे हैं? उत्तर-तीर्थंकर. फिर उसने भगवान् पार्श्वनाथ का उपदेश कैसे सुन लिया? | गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और समाधान- सर्प के पाँच इन्द्रियाँ होती हैं, मन भी विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। होता है। इतना अवश्य है कि कोई-कोई पानी के सर्प | (आ) काणि पाव फलाणि।णिरय-तिरिय-कुमाणुसअसैनी होते हैं, परन्तु सबके पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं। विज्ञान जोणीसु जाइ-जरा मरण वाहि-वेदणा-दालिद्दादीणि। यह नहीं कहता कि सर्प सुनता ही नहीं है। विज्ञान के अर्थ- पाप के फल कौन से हैं? उत्तर-नरक, अनुसार सर्प सुनता तो है, पर उसकी श्रवणशक्ति बहुत | तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, कम होती है। इस संबंध में 'दैनिक जागरण' दिनाङ्क | व्याधि, वेदना और दरिद्रता आदि की प्राप्ति पाप के फल 14.6.2007 (भोपाल संस्करण) का यह समाचार उल्लेखनीय हैं। है- 'सर्प बहरे नहीं होते, हाँ उनके सुनने की क्षमता सीमित | उपर्युक्त के अतिरिक्त श्री तत्त्वार्थसार 4/103 का होती है। कारण यह है कि साँपों के बाहरी कान होते हैं। निम्नश्लोक भी इस संबंध में पठनीय हैवह भी एक छोटी सी हड्डी, जो उनके जबड़े की हड्डी हेतु कार्य विशेषाभ्यां, विशेषः पुण्यपापयोः। को भीतरी कान की नली से जोड़ती है। साँप ध्वनि को हेतू शुभाशुभौ भावौ, कार्ये चैव सुखासुखे॥ 103॥ अपनी त्वचा से ग्रहण करता है और वह जबड़े की हड्डी ___ अर्थ- हेतु तथा कार्य की विशेषता होने से पुण्य से होती हुई भीतरी नली तक पहुँचती है। इस तरह वह और पाप में अंतर है। पुण्य का हेतु शुभ भाव है, और सुन पाता है। हम 20 से लेकर 30 हजार हर्ट्ज तक की | पाप का हेतु अशुभ भाव है। पुण्य का कार्य सुख है, और ध्वनि सुन सकते हैं जबकि साँप 200 से लेकर 300 हर्ट्ज | पाप का कार्य दुःख है। तक की ध्वनि ही सुन सकते हैं।' ___ उपर्युक्त लक्षण, फल, हेतु, कार्य आदि को जानकर अतः सर्प के पांचों इंद्रियाँ तथा मन भी होता है | यह कैसे कहा जा सकता है कि हमको पुण्य तथा पाप इसीलिये भगवान् पार्श्वनाथ के द्वारा दिये गये उपदेश को को समान रूप से हेय मानना चाहिये। यद्यपि वर्तमान में सुनकर सर्प का जोड़ा देवपर्याय को प्राप्त हुआ। एकांतवादी लोग पुण्य और पाप को समान रूप से हेय प्रश्नकर्ता- सौ० कमलकुमारी, जबलपुर मानते हैं, परन्तु उनकी मान्यता उपर्यक्त संदर्भो के परिप्रेक्ष्य जिज्ञासा- क्या हमको पुण्य तथा पाप को समान | में बिल्कुल उचित नहीं है। रूप से हेय मानना उचित है? श्री परमात्मप्रकाश गाथा 178 की टीका में इस समाधान- इस सम्बन्ध में हमें सर्वप्रथम पुण्य तथा । जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार दिया गया है 28 नवम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524322
Book TitleJinabhashita 2007 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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