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________________ 1 जिनवाणी में 11 अंग 14 पूर्व बतलाए हैं, जिनमें वैद्यानुवाद पूर्व भी अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है विद्यानुवादपूर्व गणाधिपति वृषभदेव गणधर महाराज द्वारा विवेचित किया गया है। जिसमें यन्त्र, मन्त्र औषधि आदि का महत्त्वपूर्ण विवेचन है और यह जिनशासन की भावना हेतु दि. जैन साधुओं द्वारा अनुकरणीय है । कथित वेज्ञजनों द्वारा यह सुना जाता है कि साधुओं को यह कार्य नहीं करना चाहिए। लेकिन विचारणीय यह है कि साधुओं को यह नहीं करना चाहिए? आगमानुसार यह पाया गया कि जो साधु यंत्र, तंत्र, मंत्र आदि द्वारा अपनी जीविका को चलाते हैं उनके लिए यह कार्य सर्वथा निषेध है । वे मुनि नहीं मुनीम हैं। परंतु जो संत दि. जैन जिन शासन की प्रभावना हेतु परोपकार की भावना सहित और अन्य मत मिथ्यात्व में जाने से छुटाने हेतु निःस्वार्थ भावना साहित अगर यह कार्य करते हैं तो कहीं पर भी आगम की निषेधाज्ञा लागू नहीं होती । उपर्युक्त बालाचार्य के कथन से स्पष्ट है कि आजकल साधु मंत्र-तंत्र-यंत्र से जीविका चलाते हैं, जो नहीं चलाते हैं, परोपकार करते हैं तथा इन कार्यों में आगम की निषेधाज्ञा लागू नहीं होती । 'जिनभाषित' जुलाई 2005 के पेज 11 पर प्रा. सौ. लीलावती के एक लेख 'यह मंत्र तंत्र विज्ञान हमें कहाँ ले जा रहा है?' पढ़ने से तो ऐसा प्रतीत हुआ कि आ. नदीकृत 28 कथित ग्रन्थों के डुप्लीकेट विद्यानुशासन तथा यंत्र-मंत्र आराधना, ज्वालामाकनी कल्प, सरस्वती कल्प आदि ग्रन्थ हैं। इनमें रोगमंत्र, रक्षा मंत्र, विद्या मंत्र, प्रेत मंत्र, कार्य सिद्धि मंत्र आदि का समावेश है। उक्त आचार्य ने दो शब्द की प्रस्तावना अनुसार 'मंत्र घमण्ड करना, खोटे वचन ये पाँच मूर्ख के चिह्न हैं । विज्ञान अनादि निधन है । ' इन कथित आचार्य के अनुसार (जिन्हें आगमप्रणीत कहा गया है) मंत्र साधना द्वारा देवी देवता अपने वश में हो जाते हैं। मंत्र सिद्धि प्राप्त साधक को संसार का समस्त वैभव सुलभ हो जाता है। इस भौतिकता प्रधान युग में मानव सुविधा चाहता है और चमत्कार भी । इनमें रक्षा मंत्र (शाकिनी, डाकिनी, भेरुजी, गोरखनाथ, कालका आदि के नाम आये हैं ।) में मांस खाने की बात भी कही गयी है । क्षेत्रवाद के मंत्रों में वंदीखाने से छूटेस्त्री आकर्षण करे। Jain Education International वचन सिद्धि, झगड़ों से विजय पाने, धन का क्रय विक्रय लाभ, वचन चातुर्य, कर्ण पिशाचिनी विद्या, भूत प्रेत भगाने का मंत्र, चक्षुरोग निवारण कार्य सिद्धि, वस्तु बढ़ोत्तरी, पैसे उड़ाने का मंत्र तथा ( पृष्ठ 34 ) इस मंत्र का सवा लाख जप करने से माँ तारादेवी नित्य सिरहाने दो तोला सोना रख देती है आदि । साधारण जैन श्रावक आज इन्हीं कथित साधुओं द्वारा कथित आचार्यों के ग्रन्थ के माध्यम से वीतरागता के लोप में लगे हुए । यह संसार को बढ़ाने वाला, पाप प्रवृत्ति में रचाने पचाने वाला वीतराग मार्ग से विरुद्ध है, अकरणीय है । अतः श्रावक शासन देवी-देवताओं, आचार भ्रष्ट साधुओं तथा कथित उपर्युक्त आचार्यकृत ग्रन्थों से विरत रहें तथा सच्चे देव - शास्त्र - गुरु पर अटल श्रद्धान रख मनुष्य जीवन सफल बनायें । श्री दिगम्बर जैन महावीर उदासीन आश्रम कुंडलपुर (म.प्र.) मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्यो दुर्वचनं तथा । क्रोधश्च हठवादश्च परवाक्येष्वनादरः ॥ कहना, क्रोध करना, हठ करना और दूसरे की बातों का निरादर करना, दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् । शास्त्रपूतं वदेद्वाक्यं मनःपूतं समाचरेत् ॥ आँखों से देखकर पैर रखना चाहिये, वस्त्र से छानकर जल पीना चाहिये, शास्त्र के अनुसार वचन बोलना चाहिये और मन से सोचविचारकर आचरण करना चाहिये । For Private & Personal Use Only नवम्बर 2007 जिनभाषित 21 www.jainelibrary.org
SR No.524322
Book TitleJinabhashita 2007 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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