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ख्यातिपूजालाभ के लिए मंत्रतंत्रादि का प्रयोग मुनिधर्म नहीं।
ब्र. अमरचन्द्र जैन जिनभाषित की एक-एक प्रति संग्रहणीय है।। की। मुनिराज ने उत्तर दिया- आर्यिका माताओं की साड़ियां आजकल नकली की कदर असली से ज्यादा हो रही है, | कौन धोयेगा, तू धोयेगा? बालक की समझ में आया कि 'वीतराग' के ऊपर रांग हावी हो रहा है, उसे ही जैनी अब | महाराज के परिवार में जो महिलाएँ (आर्यिकाएँ) हैं, उनके धर्म मानने लगे हैं।
वस्त्र धोने के लिए महाराज ने मशीन रखी है। यह घटना लौकिकता की दौड़ जहाँ इन्द्रिय सुखों के साधन, | सुनकर आश्चर्य हुआ एवं आज की नई पीढ़ी में इन बातों सम्पत्ति का विस्तार-आपत्ति का निस्तार, यश और सांसारिक | को सहज में लिया जाने लगा है। भोगों में निष्कंटक मार्ग, जिन माध्यमों से मिले वही धर्म | मुनिराजों की यह अवस्था और व्यवस्था ही वीतराग की परिभाषा हो गई है। अतः सरागीदेवों को पूजते हैं। मार्ग है?
आपके द्वारा प्रकाशित लेखों में शासन देवी-देवताओं । आज सामान्य श्रावक, अन्य परिग्रह सहित नग्नवंश के संबंध में, जिज्ञासा-समाधान में, प्रश्नों के उत्तर में जो | में इन्हीं को गुरु की संज्ञा देकर पूजते हैं और मनचाहा भी विश्लेषण किया जाता है, लगता है आम श्रावक पर लौकिक लाभ पाने की कामना कर प्रसन्न होकर दानादि उसका प्रभाव, उन तथ्यों का जीवन में प्रयोग, प्रवेश संभव | देकर तथा उनकी सेवाएँ करके धर्म पाल रहे हैं। श्रावकों नहीं हो पा रहा है तथा शासन देवी-देवताओं की पूज्यता | का यह वर्ग वीतरागी साधुओं के भी सान्निध्य में आता व्यापक हो रही है।
उन्हें पूजता तथा आहारादि और दान देकर अपने को आचार से भ्रष्ट साधुओं की संख्या निरंतर बढ़ रही | पुण्यशाली समझ रहा है। है और आये दिन उनके अशोभनीय, अकरणीय जीवनचर्या मेरे दिल्ली के कई परिवारों से कुण्डलपुर में रहने तथा अन्य प्रकरण प्रकाश में आते हैं। 'उपगृहन' की संज्ञा के कारण संपर्क हैं। उनका कहना है भाई सा. हम लोग देकर एक विशेष वर्ग उन्हें संरक्षण या कहें प्रोत्साहन भी गृहस्थ हैं संसार में रहते हैं, जीना है, मौज शौक करना देते हैं, पर 'स्थितिकरण' पर उनका ध्यान नहीं है। ऐसा है, विपत्तियाँ टालना है, संपत्ति कमाना है, तो जो गुरु हमें साधु-वर्ग शासन देवी-देवताओं की मान्यता/पूज्यता की | ये सब देते हैं या दिलाते हैं वे हमारे पूज्य हैं। सो हम समझाइस के कारण त्रस्त संसारी, लोभी, परिग्रह संग्रही, | संसार में सुख-साधन प्राप्त करते हैं तथा वहाँ भी हम आकर श्रावकों को सांसारिक सुख, वैभव का सपना दिखाकर यंत्र- | आचार्यश्री के संघ में आहारादि पूजा-विधान करते हैं तथा मंत्र-तंत्र तथा अन्य उपकरणों जैसे कलश स्थापना, माला, क्षेत्रों को दान देकर पुण्य कमा रहे हैं। अतः हम लौकिक यंत्र, गंडा, ताबीज आदि से उनका विश्वास जीतकर अपनी | और पारलौकिक जीवन को सुधारने तथा भोगने का उत्तम दुकानदारी चलाकर पूज्यता तथा अर्थ का अर्जन खुले आम | साधना बना रहे हैं। इसमें क्या हानि है? कर रहे हैं। इसमें कोई रोक नहीं। चूँकि समाज का एक | आप विचार करें, चिंतन करें हम कहाँ जा रहे हैं? वर्ग उन्हें उनके कार्यों पर कोई आपत्ति या अयोग्य नहीं | ऐसे श्रावकों की संख्या भी बढ़ रही है और कई प्रसंग मानता तथा उनके द्वारा उन्हें अर्थ लाभ होता है अत: शासन | है, प्रकाशित भी हैं, जहाँ आगम की आड़ में/नाम से लिखे देवी-देवताओं के एजेंट कहे जाने वाले ये भ्रष्ट साधु संख्या | ग्रन्थ आचार्यों के नाम से लिखे गये और उनका प्रचार भी में तथा करतब में नित नई विधि जोड़ते देखे गये हैं। | सांसारिक सुख-साता लाभ के लिए श्रावकों को लुभा रहा
उसका एक उदाहरण देता हूँ, आप चौकिये नहीं। है और तथाकथित साधुओं की सेवा तथा जिनवाणी की चि. धर्मेन्द्र अपनी माँ के इलाज हेतु बम्बई गये। बोरिवली | आज्ञा के पालन का पाठ पढ़ाया जा रहा है। में मुनिसंघ का दर्शन करने गये। दर्शन के पश्चात् बालक 'दिगम्बर जैन ज्योति' मासिक पत्रिका जयपुर से ने मुनिराज से पूछा कि इस वाशिंग मशीन का आपको प्रकाशित होती है। 13 जुलाई 2007 के अंक के 7 वें पेज क्या उपयोग है? बालक ने समझा महाराज नग्न हैं, अत: | पर समाचार छपा हैकपड़े धोने की मशीन का उनके पास होने से सहज जिज्ञासा | "वे मुनि नहीं मुनीम हैं-" बालाचार्य
20 नवम्बर 2007 जिनभाषित
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