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________________ जिज्ञासा - समाधान प्रश्नकर्ता- सौ. स्मिता दोषी बारामती जिज्ञासा - तीर्थंकरों के छेदोपस्थापना चारित्र होता है या नहीं? समाधान - तीर्थंकर प्रभु के छेदोपस्थापना चारित्र नहीं होता है। श्री उत्तरपुराण पर्व ७४ / ३१४ में इसप्रकार कहा है- चतुर्थज्ञाननेत्रस्य, निसर्गबलशालिनः । तस्माद्यमेवचारित्रं, द्वितीयंतुप्रमादिनाम् । ३१४। अर्थ- मनः पर्यय ज्ञानरूपी नेत्र को धारण करने वाले और स्वाभाविक बल से सुशोभित, उन तीर्थंकर प्रभु के पहले सामायिक चारित्र ही था, क्योंकि छेदोपस्थापना दूसरा चारित्र प्रमादी जीवों के होता है। २. श्री आदिपुराण २०/१७१ में भी कहा है:अप्रतिक्रमणे धर्मे जिना: सामायिका द्वये । चरन्त्येकयमे प्रायश्चतुर्ज्ञान विलोचनाः ॥ १७१ ॥ अर्थ- मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय इन चार ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने वाले तीर्थंकर परमदेव प्रायः प्रतिक्रमण रहित एक सामायिक नाम के चारित्र में ही रत रहते हैं । भावार्थ:- तीर्थंकर भगवान् के मुनि अवस्था में किसी प्रकार का दोष नहीं लगता । इसलिये उनको छेदोपस्थापना चारित्र धारण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । वे केवल सामायिक चारित्र ही धारण करते हैं । जिज्ञासा- ५ प्रकार के मरण के गुणस्थान बताइये। समाधान: श्री भगवती आराधना के आधार से ५ प्रकार मरणों के गुणस्थान इस प्रकार हैं: १. बाल बाल मरण- मिथ्यादृष्टि जीव के मरण को बाल-बाल मरण कहते हैं। गुणस्थान प्रथम व द्वितीय । २. बाल-मरण - अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के मरण को बाल मरण कहते हैं । गुणस्थान चौथा । ३. बाल-पंडित मरण- पंचम गुणस्थानवर्ती विरताविरत जीव के मरण को बाल - पंडित मरण कहते हैं। ४. पंडित मरण - चारित्रवान् मुनियों के पंडित मरण होता है । उसके ३ भेद हैं- भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनीमरण तथा प्रायोपगमन। गुणस्थान ६ से ११ तक । ५. पंडित-पंडित मरण- केवली भगवान् का चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय में पंडित - पंडित मरण होता है। प्रश्नकर्ता - पं. नेमिचन्द जी छतरपुर जिज्ञासा- क्या वर्तमान के मुनिराज समाधिमरण पूर्वक देहत्याग कर सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होकर एक । 18 सितम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा भवावतारी बन सकते हैं? समाधान: स्वर्ग में किन जीवों की कहां तक उत्पत्ति होती है, इस संबंध में सिद्धांतसार- दीपक में इसप्रकार कहा है सौधर्माद्यष्टनाकेषु षट्संहननसंयुताः । यान्ति शुक्रादिकल्पेषु चतुर्षु चान्तिमं बिना ।। १५/२९४ ॥ पंचसंहनना आनताद्येस्वन्यचतुर्षु च । चतुः संहनना जीवा, गच्छन्ति पुण्यपाकतः । १५/२९५ । नवग्रैवेयकेषु त्र्युत्तमसंहननान्विताः । जायन्ते मुनयो दक्षा नवानुदिशनामनि ॥ १५ / २९६ ॥ अन्त्यद्विसंहननाढ्या यान्ति रत्नत्रयार्जिताः । पंचानुत्तरसंज्ञे चादिसंहननभूषिताः ॥ १५ / २९७ ॥ अर्थ- सौधर्मादि आठ स्वर्गों में छहों संहनन वाले जीव उत्पन्न होते हैं। शुक्रादि चार स्वर्गों में (९,१०,११,१२वें) अंतिम संहनन छोड़कर पांच संहनन वाले जीव तथा आनतादि (१३, १४, १५, १६ वें ) चार स्वर्गों में अंत के दो संहनन छोड़कर शेष चार संहनन वाले जीव पुण्योदय से उत्पन्न होते हैं। नवग्रैवेयकों में तीन उत्तम संहननधारी मुनिराज, नव अनुदिशों में आदि के दो संहननों से युक्त मुनिराज तथा पंच अनुत्तरों में प्रथम संहननवाले मुनिराज उत्पन्न होते हैं। उपरोक्त प्रमाण से ज्ञात होता है कि सर्वार्थसिद्धि नामक अनुत्तर विमान में केवल वज्रवृषभनाराच नामक प्रथम संहननवाले मुनिराज ही उत्पन्न होते हैं। इस पंचम काल में केवल तीन हीन संहनन (अर्द्धनाराच, कीलक, असंप्राप्ता सृपाटिका) वाले मनुष्य ही होते हैं । अतः वर्तमान कोई भी मुनिराज सोलहवें स्वर्ग से ऊपर उत्पन्न नहीं हो सकते। अर्थात् सर्वार्थसिद्धि में भी वर्तमान के कोई भी मुनिराज उत्पन्न नहीं हो सकते। जहाँ तक एक भवावतारी बनने का प्रश्न है, वर्तमान के मुनिराज दक्षिणेन्द्र (यदि उनके क्षायिक सम्यक्त्व नियामक न हो तो), सौधर्म इन्द्र की शचि, सौधर्म इन्द्र के लोकपाल तथा लौकांतिक देव बनकर, वहां से च्युत हो मनुष्य पर्याय प्राप्तकर मोक्ष जा सकते हैं। जिज्ञासा - मिश्र काययोग का स्वरूप समझाइये ? समाधान- जब कोई जीव मरकर तिर्यंच या मनुष्य के औदारिक शरीर में उत्पन्न होता है, तब जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती, तब तक कार्मण एवं औदारिक वर्गणाओं के द्वारा, जीव के प्रदेशों में जो परिस्पंदन होता है वह औदारिक मिश्र काययोग कहलाता है। गोम्मटसार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524320
Book TitleJinabhashita 2007 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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