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अन्वयार्थ- (चित्ते) जिनके चित्त में (दया) दया
त्वं चित्तगेहकमलं मनिप! प्रविश्य (विनिवसति) रहती है (दुष्टापकीर्तिः) दुष्ट अपयश सध्यानतोरणसमागत आप्रतिष्ठ। जिनसे (अभिभूतं) पराजय को (एति) प्राप्ति होता है
भिक्षाचरोऽपि विददाति सवस्तनस्त (अघता) पाप भाव (अपि) भी जिनसे (विभीति) भय
तज्ज्ञानसागरयते: पदयोर्नमोऽस्तु॥८॥ को (एति) प्राप्त होता है (आचार्यवर्य) ऐसे हे आचार्यश्रेष्ठ
अन्वयार्थ- (मुनिप!) हे मुनिश्रेष्ठ! (त्वं) आप (न:) हमको (तु) भी (समतासुखवस्तु) समता सुख की
(सद्ध्यानतोरणसमागतः) समीचीन ध्यानरूपी तोरण द्वार से वस्तु मिले (तत्) अत: उन (ज्ञानसागरयते:) श्रीज्ञानसागर
आते हुए (चित्तगेहकमलं) मेरे चित्तरूपी गृह कमल में आचार्य के (पदयोः) चरणों में (नमः अस्तु) मेरा नमस्कार
(प्रविश्य) प्रवेश करके (आ प्रतिष्ठ) विराजमान होओ। हो।
(भिक्षाचर: अपि) जो भिक्षाचर्या करते हुए भी (न:) हमको
(सुवस्तु) श्रेष्ठवस्तु (तु) अवश्य (विददाति) देते हैं (तत्) यत्नात् शशास वृषवीरशिवार्यसंघे
उन (ज्ञानसागरयते:) श्री ज्ञानसागर आचार्य के (पदयोः) सिद्धान्तसंस्कृतकथादिसुशास्त्रसंघम् ।
चरणों में (नमः अस्तु) मेरा नमस्कार हो। पूज्योऽपि योऽत्र मृदुतालयकेतुरस्तु
मालिनी दन्दतज्ज्ञानसागरयतेः पदयोर्नमोऽस्तु॥७॥
सुनयकमलचन्द्रं विश्वशान्त्यैकमन्त्रं अन्वयार्थ- (वृषवीरशिवार्यसंद्ये) श्री आचार्य विविधविबुधमान्यं चित्तभूपुण्यधान्यम्। धर्मसागर, वीरसागर एवं शिवसागर जी के संघ में (सिद्धान्त भवजलजतुषारं मूर्तिमध्यात्मसारं संस्कृतकथादिसुशास्त्रसंघम्) सिद्धान्त, संस्कृत, प्रथमानुयोग वृणु सुगुणमगम्यं ज्ञानसूरिं प्रणम्य॥९॥ आदि श्रेष्ठ शास्त्रों को (यत्नात्) यत्नपूर्वक (शशास) जो
अन्वयार्थ- सुनयरूपी कमल को खिलाने के लिये पढ़ाते थे। (यः) जो (अत्र) इस लोक में (पूज्यः अपि) |
स लोक में (पज्यः अपि) | चन्द्रमा के समान, विश्वशान्ति का एक मात्र मन्त्र, अनेक पूज्य होते हुए भी (मृदुतालयकेतः) मृदुतारूपी महल की | विद्वानों से मान्य, चित्तरूपी पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली पताका (अस्तु) हैं (तत्) उन (ज्ञानसागरयते:) श्री ज्ञानसागर |
पुण्य रूपी धान्यस्वरूप, संसाररूपी कमल को नष्ट करने आचार्य के (पदयोः) चरणों में (नमः अस्त) मेरा नमन | के लिये तुषार के समान, अध्यात्म की सारभत मर्ति श्री
ज्ञानसागर आचार्य को प्रणाम करके, उनके इन्द्रियों से अगोचर श्रेष्ठ गुणों का हे भव्य! वरण करो।
हो।
नम्र निवेदन
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विनीत रतनलाल बैनाड़ा
प्रकाशक
-सितम्बर 2007 जिनभाषित 17
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