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________________ विशेषण की कोई सार्थकता नहीं है। अरिहन्तों के ४६ । सारभूत विशिष्ट ज्ञान जिनको होता है वे अन्य मुनियों को मूलगुण होते हैं वे ४६ मूलगुण सबमें एक ही प्रकार के | शिक्षा देने वाले उपाध्याय परमेष्ठी हैं। उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं कम अधिक नहीं होते। जो जिस मूलगुण का रूप | में भी कोई अवान्तर भेद नहीं है। इसलिए "णमो उवज्झायाणं" है वही सभी अरिहंतों के सभी मूलगुणों का रूप है अत: | में ये 'सव्व' विशेषण की आवश्यकता नहीं है। अरिहंत व्यक्तिरूप में अनेक हैं किन्तु गुणों के रूप में सब अब पांचवाँ नम्बर आता है साधु परमेष्ठी का। साधु एक ही हैं। अतः अरिहंतों को नमस्कार हो इसमें सभी | के २८ मूलगुण होते हैं। इसके साथ ही इन्हें उत्तरगुण भी अरिहंत व्यक्ति अन्तर्भूत हो जाते हैं अतः वहाँ “सव्व" | पालन करने होते हैं। लेकिन इनके पालन करने में सभी शब्द की आवश्यकता नहीं है। साधु एक जैसे नहीं होते। किसी के मूलगुण पलते हैं तो इसीप्रकार सिद्ध व्यक्ति रूप से अनन्त हैं गुणों के | उत्तरगुण नहीं पलते और मूलगुण में भी दोष लगता है अतः रूप में वे सब एक ही हैं क्योंकि आठ गुण जो एक सिद्ध | इन साधुओं में परस्पर भिन्नता है। यहाँ पूछा जा सकता में हैं वे ही आठों गुण उसीप्रकार से अनन्तानन्त सिद्धों में | है कि जब उनके मूलगुण नहीं पलते तब उन्हें साधु ही हैं अतः सिद्धों को नमस्कार हो यह कहने से अनन्तानन्त | नहीं कहना चाहिए। लेकिन शास्त्रकारों ने उन्हें साधु माना सिद्धों को नमस्कार हो जाता है अतः यहाँ भी सिद्धों के | है। अत: इन भावलिङ्गी साधुओं के शास्त्रकारों ने पाँच भेद साथ "सव्व" विशेषण की आवश्यकता नहीं है। किये हैं जिनके पाँच नाम इस प्रकार हैं- १. पुलाक, २. तीसरे आचार्य परमेष्ठी हैं- आचार्य परमेष्ठी के ३६ | वकुश, ३. कुशील, ४. निर्ग्रन्थ, ५. स्नातक। मूलगुण होते हैं। शिष्यों को दीक्षा, निग्रह-अनुग्रह इनका । १. इनमें पुलाक मुनि वे हैं जो उत्तरगुणों की भावना मुख्यतया काम है। इनके ३६ मूलगुणों के पालन में किसी | नहीं रखते और व्रतों में भी कभी-कभी दोष लगाते हैं वे प्रकार का कोई अपवाद नहीं है वे यथावत् पालने ही होते | पुलाक हैं। हैं। अतः आचार्यों के अन्तर्गत कोई भेद नहीं है। समयानुसार | २. वकुश व्रतों का अखण्ड पालन करने पर भी वे आचार्य पद छोड़ भी सकते हैं। लेकिन उन्हें अपने | शरीर, उपकरण आदि की विभूषण में अनुरक्त हैं। मूलगुण पालन में कोई छूट नहीं दी जा सकती। इसलिए ३. कुशील दो प्रकार के हैं। प्रतिसेवना कुशील और आचार्यों को नमस्कार करने में "सव्व" पद की कोई | कषाय कुशील । प्रतिसेवना कुशील-जो मूलगुणों, उत्तरगुणों आवश्यकता नहीं है। आचार्यों को नमस्कार हो, यह कहने | का पालन करते हैं किन्तु शरीर, उपकरण आदि की मूर्छा में सभी आचार्यों का ग्रहण अपने आप ही हो जाता है। से रहित नहीं हैं वे प्रतिसेवना कुशील हैं। कषाय कुशील चौथे परमेष्ठी उपाध्याय हैं- उपाध्याय शब्द का अर्थ | जिन्होंने अन्य कषायों को वश में कर लिया है किन्तु है 'उपेत्य अधीयन्ते यस्तात् सः' अर्थात् जिनके निकट बैठ | संज्वलन कषाय के अधीन हैं वे कषाय कुशील हैं। पढ़ा जाय वे उपाध्याय हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार | ४. निर्ग्रन्थ- क्षीण मोही १२ वें गुणस्थानवर्ती निर्ग्रन्थ उपाध्याय परमेष्ठियों में कोई अन्तर नहीं है सब एक ही | हैं यहाँ ग्रन्थ का अर्थ अन्तरङ्ग परिग्रह कषाय से है। हैं। उपाध्याय के २५ मूलगुण भी माने हैं। वे २५ मूलगुण | ५. स्नातक- परिपूर्ण ज्ञानी (केवलज्ञानी) स्नातक ११ अङ्ग और १४ पूर्व हैं। इन दोनों का जोड़ २५ होता | हैं। इसतरह साधु परमेष्ठी के ये पाँच भेद जिनके पृथक्है। यह २५ प्रकार का श्रुत द्वादशाङ्ग (१२ अंक) में गर्भित | पृथक् नाम, जो गुण आदि की मात्रा से एक दूसरे से पृथक् है। यह द्वादशाङ्ग श्रुत दो प्रकार का है एक द्रव्यश्रुत दूसरा | हैं उन सबका ग्रहण करने के लिए साधु परमेष्ठी के साथ भावश्रुत। 'सव्व' विशेषण दिया है। अर्थात् "णमो लोए सव्वसाहूणं" सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत का या उस द्रव्यश्रुत के भाव का | इस पद में "सर्व साधुओं को नमस्कार हो" इसका अर्थ जिसको ज्ञान है वह उपाध्याय परमेष्ठी है। उमास्वामी | यह है कि लोक में उक्त पांच प्रकार के साधुओं को आचार्य की प्रशंसा में उन्हें "श्रुत केवलिदेशीय" कहा गया । नमस्कार हो, अन्य परमेष्ठियों में इसप्रकार गुण भेद को है इसका अभिप्राय यही है कि उन्हें पूर्ण द्रव्यश्रुत का ज्ञान | लेकर कोई भेद नहीं है अत: उनके साथ "सव्व" विशेषण नहीं था फिर भी उन्हें भावश्रुत का अत्यधिक ज्ञान था। | नहीं दिया है। इसलिए श्रुतकेवली कल्प थे। इसप्रकार द्वादशाङ्ग का | डॉ० लालबहादुर शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ से साभार -सितम्बर 2007 जिनभाषित , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524320
Book TitleJinabhashita 2007 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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