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णमो लोए सव्वसाहूणं
- स्व. डॉ. लालबहादुर जी जैन शास्त्री जैनों में नमस्कार मंत्र की बड़ी महिमा है तथा इसे । अभिप्राय यह हुआ कि लोक में जितने भी साधु हैं। चाहे अनादिनिधन मन्त्र स्वीकार किया है। यहाँ तक कि समस्त | वे दिगम्बर, श्वेताम्बर हों, रक्ताम्बर हों, पीताम्बर हों, अनादिनिधन श्रुत के अक्षर भी इसमें समाविष्ट हैं। पूजन | जटाधारी हों, मुंडित हों, कापालिक हों या किसी भी वेष के प्रारम्भ से इस मन्त्र की स्तुति का भी निर्देश है। "पवित्र | के धारण करने वाले हों उन सबको नमस्कार है। जबकि या अपवित्र अवस्था में भी जो इस मन्त्र का ध्यान करता | आचार्य समन्तभद्र के अनुसारहै वह सब पापों से छुटकारा प्राप्त करता है अच्छे या बुरे " श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागम तपोभृताम्। स्थान में हो अथवा किसी भी अवस्था में हो, इस मन्त्र
त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥" का स्मरण करने वाला भीतर-बाहर सदा पवित्र है। यह | अर्थात् जो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु हैं उनका तीन मन्त्र कभी किसी अन्य मंत्र से पराजित नहीं होता, सम्पूर्ण | मूढ़ता रहित आठ मद रहित, तथा अष्टाङ्ग सहित श्रद्धान विघ्नों का नाशक है और सभी मंगलों में प्रथम मंगल है।" | करना सम्यग्दर्शन है। लेकिन जब सब साधुओं को नमस्कार इसप्रकार मन्त्र के माहात्म्य को देखकर प्रत्येक श्रावक साधु | किया जाता है इससे झूठे देव-शास्त्र-गुरु का निरसन नहीं इस मंत्र का स्मरण करता है। शास्त्रों में तो यहाँ तक लिखा होता। अतः यह "सव्व" पद नहीं होना चाहिए। इस पर है कि चलते-फिरते, उठते-बैठते, आते-जाते सदा इस मन्त्र | कुछ लोगों का कहना है कि साधु कहा ही उसे जाता है. का स्मरण करना चाहिए। जैनों में जितने भी सम्प्रदाय हैं | जो २८ मूलगुणों को धारण करता है। अतः "णमो लोए वे सभी इस मंत्र का समादर करते हैं। धर्मध्यान के भेदों | सव्वसाहूणं" का अर्थ होता है, "लोक में सम्पूर्ण २८ में पदस्थ नाम का भी एक धर्मध्यान है। इस ध्यान में | मूलगुणधारियों (साधुओं) को नमस्कार है। णमोकार मंत्र के पदों को लेकर ध्यान किया जाता है। इसके उत्तर में पूर्व पक्ष का कहना है कि यदि "सव्व, आचार्य नेमिचन्द्र लिखते हैं
साहूणं" से मतलब उक्त जैनसाधुओं से है तो फिर सभी पणतीससोलछप्पण चदुदुगमेगं च जवह ज्झाएह।
जगह अर्थात् पांचों परमेष्ठियों में भी सव्व विशेषण प्रयोग परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरूवएसेण॥ होना चाहिए। फिर तो णमोकार मंत्र का रूप इसप्रकार होगा
अर्थात् परमेष्ठी के वाचक पैंतीस, सोलह, छ:, पाँच, | "णमो सव्व अरिहंताणं, णमो सव्व सिद्धाणं, णमो सव्व चार, दो और एक अक्षर रूप मन्त्र पदों का ध्यान करना | आयरियाणं" इत्यादि। चाहिए।
उत्तर पक्ष इसका उत्तर इसप्रकार देता है कि ऐसे महामन्त्र को लेकर आज अनेक लोग उसके | "सव्व" विशेषण को पाँचों परमेष्ठियों में लगाने की शुद्ध-अशुद्ध होने की चर्चा करते हैं। यद्यपि लिखावट या | आवश्यकता नहीं है। "सव्वसाहूणं" के साथ जो सव्व छापे की अशुद्धि से अशुद्धि का आ जाना कोई बड़ी बात विशेषण है उसी को सब जगह पाँचों परमेष्ठियों के साथ नहीं है। वे अशुद्धियाँ किसी प्रकार शुद्ध की जा सकती | लगा लेना चाहिए। पर यह उत्तर भी समुचित नहीं बैठता। हैं। लेकिन मूलतः ही मंत्र को अशुद्ध मानकर उसको शुद्ध | "सव्व" शब्द यदि अरिहन्त शब्द के साथ प्रयुक्त होता करने का प्रयत्न करना वैसा ही है जैसे काई टिटहरी चित्त | तो बाद में सब परमेष्ठियों के साथ लग सकता था। परन्तु लेटकर अपने चारों पैरों से आकाश को गिरने से रोकने जब वह स्पष्ट अन्तिम साधुपद का विशेषण है तो उसे का प्रयत्न करे। सुना है जैनों के एक सम्प्रदाय में इस पर | पिछले सभी पदों का विशेषण माना जाय यह कुछ युक्तियुक्त बड़ी चर्चा चली कि इस मंत्र का अन्तिम पद अशुद्ध है। | नहीं लगता। अन्तिम पद है- "णमो लोए सव्वसाहूणं" का अर्थ है लोक अतः वास्तविक स्थिति क्या है उसका हम यहाँ में सब साधुओं को नमस्कार हो। इस पर किन्हीं लोगों | खुलासा करते हैंका कहना है कि यहाँ साधु के लिए "सव्व" विशेषण परमेष्ठी पांच हैं अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, उचित नहीं है क्योंकि "णमो लोए सव्वसाहूणं" का अर्थ | साधु। इनमें अरिहन्त परमेष्ठी के अन्तर्गत कोई किसी होता है लोक में सब साधुओं को नमस्कार हो। इसका | प्रकार का भेद नहीं है। जब भेद नहीं है तब वहाँ"सव्व"
8 सितम्बर 2007 जिनभाषित
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