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जिज्ञासा-समाधान
पं० रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- श्री राजीव जैन, अमरपाटन । राग-द्वेष से पूरित हैं। शास्त्रों में इनके संबंध में इस प्रकार
जिज्ञासा- आगम में औदारिक शरीर की उत्कृष्ट | कहा हैस्थिति- ३ पल्य, वैक्रियिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति ३३ १. आचार्य कुंदकुंद ने मोक्षपाहुड़ में कहा हैंसागर, आहारक शरीर की अंतर्महर्त, तैजस शरीर की ६६ | कुच्छिय देवं धम्म, कुच्छिय लिंगं च वंदए जो दु। सागर तथा कार्मण शरीर की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोडा| लज्जाभयगारवदो, मिच्छादिट्ठी हवे सोदु॥ ९२॥ कोड़ी सागर कही है। तो तैजस शरीर की उत्कृष्ट स्थिति ___ अर्थ- जो सूर्य, चन्द्र, यक्ष आदि खोटे देवों की, से क्या तात्पर्य है?
खोटे धर्म व खोटे लिङ्ग की वंदना, नमस्कार या अभिवादन समाधान- तैजसवर्गणाओं से तैजस शरीर की | मन-वचन-काय से करता है, वह मिथ्यादृष्टि होता है। निष्पत्ति होती है। वे तैजस वर्गणायें आत्मा के साथ सम्बद्ध २. श्री वृहद्रव्यसंग्रह गाथा ४१ की टीका में कहा होकर रहती हैं। उनमें से कोई वर्गणा तो प्राप्त होने के | अगले समय में ही अलग हो जाती है और कोई वर्गणा "ख्याति पूजा लाभ रूप लावण्य सौभाग्य पुत्र कलत्र आत्मा के साथ ६६ सागर काल तक संबद्ध रह सकती राज्यादि विभूति निमित्तं रागद्वेषापहतात रौद्र परिणत क्षेत्रपाल
चंडिकादि मिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तदेवता है। तैजस शरीर सामान्य तो आत्मा के साथ हमेशा रहता
मूढत्वं भव्यते। न च ते देवाः किमपि फलं प्रयच्छति।" है। कहा भी है- 'अनादि संबंधे च' अर्थात् तैजस और कार्मण शरीर का संबंध आत्मा के साथ कितने काल तक
___ अर्थ- जो जीव ख्याति, पूजा, लाभ, रूप, लावण्य, रह सकता है- इस संबंध में कहा गया है कि तैजस वर्गणा
सौभाग्य, पुत्र, स्त्री, राज्य आदि वैभव के लिये राग-द्वेष के रहने का काल जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से
से आहत आर्त और रौद्र परिणाम वाले क्षेत्रपाल, चंडिका ६६ सागर मानना चाहिये।
आदि मिथ्यादेवों की आराधना करते हैं उसे देवमूढ़ता कहते प्रश्नकर्ता- सौ. रंजना, बेलगांव
हैं। वे देव कुछ भी फल नहीं देते। जिज्ञासा- वर्तमान के कुछ आचार्य क्षेत्रपाल आदि |
इन प्रमाणों से यह निश्चित है कि ये क्षेत्रफल आदि यक्षों की स्थापना का उपदेश देते हैं उनकी बात मानने
देवी-देवता की पूजा-आराधना देवमूढ़ता अर्थात् गृहीत योग्य है या नहीं?
मिथ्यात्व के अंतर्गत आती है। अतः मंदिरों में इनकी न समाधान- आगम में नवदेवताओं की पूजा का
तो स्थापना ही होनी चाहिये, और न पूजा ही। वर्तमान में विधान मिलता है। वे नवदेवता-पंचपरमेष्ठी, जिनालय,
जो इनकी पूजा या आरती की जाती है वह मिथ्यात्व को जिनबिंब, जिनवाणी तथा जिनधर्म हैं। इनके अलावा अन्य
पुष्ट करती है, अतः एकदम गलत है। किसी भी देव की पूजा का विधान शास्त्रों में नहीं आता।
सच तो यह है कि कोई भी दिगम्बर साधु इनकी जितने भी जिनालय बनाये जाते हैं उनमें इन्हीं नवदेवताओं |
स्थापना या पूजा के लिये नहीं कह सकता। यदि कहता की पूजा की जाती है। श्रावक देवपूजा रूप प्रथम कर्त्तव्य
है तो वह जैन सिद्धांत के विरुद्ध है। फिर भी यदि कोई की भावना से जिनमंदिर जाता है वहाँ नवदेवताओं की
आचार्य ऐसा उपदेश देते हैं तो उनकी प्रामाणिकता पर प्रश्न भक्तिभाव से पूजा करता है। ये जिनमंदिर इसी निमित्त से |
चिन्ह लग जायेगा। आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि बनाये जाने की परम्परा अनादि काल से है।
हम शास्त्रों का अध्ययन नहीं करते। जिसका नतीजा यह सर्वप्रथम यह विचार करें कि इन जिनालयों में
होता है कि कौन साधु या आचार्य प्रामाणिक हैं, आगम क्षेत्रपाल आदि की मूर्ति क्यों होनी चाहिये? इन जिनालयों
के अनुसार उपदेश देनेवाले हैं या नहीं, इसका ज्ञान हमें में श्रावक, वीतरागता प्राप्ति के निमित्त आता है। वीतरागियों
नहीं हो पाता। हम भोले हैं, हम तो नग्न मुद्रा और पीछी की पूजा करता है। इन सरागी देवी-देवताओं की पूजा करने
कमंडलु देखकर उनकी आज्ञा मान लेते हैं और मिथ्यात्व से क्या वीतरागता की प्राप्ति संभव है? कभी नहीं। ये स्वयं का पोषण करने लग जाते हैं। यदि ऐसे ही हम बने रहे,
अगस्त 2007 जिनभाषित 27
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