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________________ हो और नित्य स्नान आदि के करने से जिसका शरीर शुद्ध । अपेक्षा से कहे गये हैं, जैनधर्म को पालन करने में इन रहता हो, ऐसा शूद्र भी ब्राह्मणादिक वर्णों के सदृश श्रावक | चारों वर्गों के मनुष्य परम समर्थ हैं और उसे पालन करते धर्म का पालन करने के योग्य है। क्योंकि जाति से हीन | हुए वे सब आपस में भाई-भाई के समान हैं।' आत्मा भी कालादिक लब्धि को पाकर जैनधर्म का इन सब प्रमाणों से सिद्धांत की अपेक्षा, प्रवृत्ति की अधिकारी होता है। अपेक्षा, और शास्त्राधार की अपेक्षा सब प्रकार से यह बात इसीतरह श्रीसोमदेव आचार्य ने भी, 'नीतिवाक्यामृत' | कि, प्रत्येक मनुष्य जैनधर्म को धारण कर सकता है, के नीचे लिखे वाक्य में, उपर्युक्त तीनों शुद्धियों के होने | कितनी स्पष्ट और साफ तौर पर सिद्ध है, इसका अनुमान से शूद्रों को धर्मसाधन के योग्य बतलाया है:- हमारे पाठक स्वयं कर सकते हैं और मालूम कर सकते "आचाराऽनवद्यत्वं शुचिरुपस्कारः शरीर शुद्धिश्च | हैं कि वर्तमान जैनियों की यह कितनी भारी गलती और करोति शूद्रानपि देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान्।" | बेसमझी है जो केवल अपने आपको ही जैनधर्म का मौरूसी (४) रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्वामि समन्तभद्राचार्य | हकदार समझ बैठे हैं। लिखते हैं कि: ___अफसोस! जिनके पूज्य पुरुषों, तीर्थंकरों और ऋषिसम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम्। मुनियों आदि का तो इस धर्म के विषय में यह ख्याल देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम्॥२८॥ | और यह कोशिश थी कि कोई जीव भी इस धर्म से वंचित अर्थात्- सम्यग्दर्शन से युक्त- जैनधर्म के श्रद्धानी- | न रहे- यथासाध्य प्रत्येक जीव को इस धर्म में लगाकर चांडाल पुत्र को भी गणधरादि देवों ने 'देव' कहा है- | उसका हित साधन करना चाहिये, उन्हीं जैनियों की आज "आराध्य' बतलाया है- उसकी दशा उस अंगार के सदृश | यह हालत है कि वे कंजस और कपण की तरह जैनधर्म है जो बाह्म में भस्म से आच्छादित होने पर भी अंतरङ्ग | को छिपाते फिरते हैं। न आप इस धर्मरत्न से लाभ उठाते में तेज तथा प्रकाश को लिये हुए है और इसलिये कदापि | हैं और न दूसरों को ही लाभ उठाने देते हैं। इससे मालूम उपेक्षणीय नहीं होता। होता है कि, आजकल के जैनी बहुत ही तंगदिल इससे चांडाल का जैनी बन सकना भली-भांति (संकीर्णहृदय) हैं और इसी तंगदिली ने उन पर संगदिली प्रकट ही नहीं किंतु अभिमत जान पड़ता है। इसके सिवाय, (पाषाणहृदयता) की घटा छा रक्खी है।खुदगर्जी (स्वार्थपरता) सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तो चौथे गुणस्थान में ही हो जाती | का उनके चारों तरफ राज्य है। यही कारण है कि वे दूसरों है, चंडाल इससे भी ऊपर जा सकता है और श्रावक के का उपकार करना नहीं चाहते और न किसी को जैनधर्म व्रत धारण कर सकता है। इसमें किसी को भी आपत्ति का श्रद्धानी बनाने की कोई खास चेष्टा ही करते हैं। उनकी नहीं है। रविषेणाचार्य ने तो 'पद्मपुराण' में ऐसे व्रती चाण्डाल तरफ से कोई डूबो या तिरो, उनको इससे कुछ प्रयोजन को 'ब्राह्मण' का दर्जा प्रदान किया है और लिखा है कि | नहीं। अपने भाईयों की इस अवस्था को देख कर बड़ा कोई भी जाति बुरी अथवा तिरस्कार के योग्य नहीं है- | ही दःख होता है। सभी गुणधर्म की अधिकारिणी हैं। यथा: प्यारे जैनियों! आप उन वीरपुरुषों की संतान हो, न जातिगर्हिता काचिद्गुणा:कल्याणकारणम्। जिन्होंने स्वार्थ-बुद्धि को कभी अपने पास तक फटकने व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥११-२०३॥ | | नहीं दिया, पौरुषहीनता और भीरुता का कभी स्वप्न में (५) सोमसेन के त्रैवर्णिकाचार में भी एक पुरातन | भी जिनको दर्शन नहीं हुआ, जिनके विचार बड़े ही विशुद्ध, श्लोक निम्नप्रकार से पाया जाता है: गंभीर तथा हृदय विस्तीर्ण थे और जो संसार भर के सच्चे विप्रक्षत्रियविट्शूद्रः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः।। शुभचिंतक तथा सब जीवों का हित साधन करने में ही जैनधर्म पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः॥ अपने को कृतार्थ समझने वाले थे। आप उन्हीं की (अ.७ श्लोक १४२) ४२) | वंशपरम्परा में उत्पन्न हैं जिनका सारा मनोबल, वचनबल, इसमें लिखा है कि- 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और | बद्धिबल और कायबल निरंतर परोपकार में ही लगा रहता शूद्र ये चारों वर्ण अपने-अपने नियत कर्म-विशेष की! था, धार्मिक जोश से जिनका मुखमंडल (चेहरा) सदा अगस्त 2007 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524319
Book TitleJinabhashita 2007 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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