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________________ हो सके। 'पूर्णभद्र' और 'मानभद्र' नाम के दो वैश्य भाइयों । के संदेह अथवा भ्रम का और भी अच्छी तरह निरसन ने एक चांडाल को श्रावक के व्रत ग्रहण कराए थे और उन व्रतों के कारण वह चांडाल मरकर सोलहवें स्वर्ग में बड़ी ऋद्धि का धारक देव हुआ था, जिसकी कथा पुण्यास्रव कथाकोश में पाई जाती 1 'हरिवंशपुराण' में लिखा है कि, गंधमादन पर्वत पर एक 'परवर्तक' नाम के भील को श्रीधर आदिक दो चारण मुनियों ने श्रावक के व्रत दिये । इसीप्रकार म्लेच्छों के जैनधर्म धारण करने के संबंध में भी बहुत सी कथाएँ विद्यमान हैं, जबकि जैनी चक्रवर्ती राजाओं ने तो म्लेच्छों की कन्याओं से विवाह तक किया है। ऐसे विवाहों से उत्पन्न हुई सन्तान मुनि दीक्षा ले सकती थी, इतना ही नहीं किंतु म्लेच्छ देशों से आए हुए म्लेच्छ तक भी मुनिदीक्षा के अधिकारी ठहराये गये हैं । श्रीनेमिनाथ के चचा वसुदेवजी ने भी एक म्लेच्छ राजा की पुत्री से, जिसका नाम जरा था, विवाह किया था, और उससे 'जरत्कुमार' उत्पन्न हुआ था, जो जैनधर्म का बड़ा भारी श्रद्धानी था और जिसने अंत में जैनधर्म की मुनिदीक्षा धारण की थी । यह कथा भी हरिवंशपुराण में लिखी है। और इसी पुराण में, जहाँ पर श्रीमहावीर स्वामी के समवसरण का वर्णन है वहाँ पर यह भी लिखा है कि समवसरण में जब श्रीमहावीर स्वामी ने मुनिधर्म और श्रावकधर्म का उपदेश दिया तो उसको सुनकर 'बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग मुनि हो गये और चारों ही वर्ण के स्त्री-पुरुषों ने श्रावक के बारह व्रत धारण किये' । इतना ही क्यों? उनकी पवित्र वाणी का यहाँ तक प्रभाव पड़ा कि कुछ जानवरों ने भी अपनी शक्ति के अनुसार श्रावक के व्रत धारण किये। इससे भली-भांति प्रकट है कि, प्रत्येक मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रत्येक जीव जैनधर्म को धारण कर सकता है। इसलिये जैनधर्म सबको बतलाना चाहिये । (१) 'पूजासार' के श्लोक नं. १६ में जिनेन्द्रदेव की पूजा करनेवाले के दो भेद वर्णन किये हैं- एक नित्य पूजन करनेवाला, जिसको 'पूजक' कहते हैं और दूसरा प्रतिष्ठादि विधान करनेवाला, जिसको 'पूजकाचार्य' कहते हैं। इसके पश्चात् दो श्लोक में आद्य (प्रथम) भेद 'पूजक' का स्वरूप दिया है और उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र इन चारों ही वर्णों के मनुष्यों को पूजा करने का अधिकारी ठहराया है । यथाः ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूदो वाऽऽद्यः सुशीलवान् । दृढव्रतो दृढाचारः सत्यशौचसमन्वितः ॥ १७ ॥ (२) इसीप्रकार 'धर्मसंग्रह श्रावकाचार' के ९ वें अधिकार के श्लोक नं. १४२ में श्रीजिनेन्द्रदेव की पूजा करने वाले के उपर्युक्त दोनों भेदों का कथन करने के अनंतर ही एक श्लोक में- 'पूजक' के स्वरूप कथन मेंब्राह्मणादिक चारों वर्णों के मनुष्यों को पूजा करने का अधिकारी बतलाया है। वह श्लोक यह है Jain Education International ब्राह्मणादिचतुर्वर्ण्य आद्यः शीलव्रतान्वितः । सत्यशौचदृढाचारो हिंसाद्यव्रतदूरगः ॥ १४३ ॥ और इसी ९ वें अधिकार के श्लोक नं. २२५ में ब्राह्मणों के पूजन करना, पूजन कराना, पढ़ना, पढ़ाना, दान देना और दान लेना, ऐसे छह कर्म वर्णन करके उससे अगले श्लोक "यजनाध्ययने दानं परेषां त्रीणि ते पुनः " इस वचन से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के पूजन करना, पढ़ना और दान देना, ऐसे तीन कर्म वर्णन किये हैं । इन दोनों शास्त्रों के प्रमाणों से भली-भांति प्रकट है कि, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों के मनुष्य जैनधर्म को धारण करके जैनी हो सकते हैं। तब ही तो वे श्रीजिनेन्द्रदेव की पूजा करने के अधिकारी वर्णन किये गये हैं । (३) 'सागारधर्मामृत' में पं. आशाधर जी ने लिखा है कि: इन सब उल्लेखों पर से, यद्यपि प्रत्येक मनुष्य खुशी से यह नतीजा निकाल सकता है कि, जैनधर्म आज-कल के जैनियों की खास मीरास नहीं है, उस पर मनुष्य क्या, ३ मात्र को पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त है और प्रत्येक मनुष्य अपनी शक्ति अथवा सामर्थ्य के अनुसार उसको धारण और पालन कर सकता है, फिर भी यहाँ पर कुछ थोड़े से प्रमाण और उपस्थित किये जाते हैं जिससे इस विषय | मांस और मंदिरा आदि के त्याग से जिसका आचरण पवित्र शूद्रोप्युपस्कराचारवपुः शुध्याऽस्तु तादृशः । जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ॥ ( अ.२ श्लोक २२ ) अर्थात्- आसन और बर्तन वगैरह जिसके शुद्ध हो, 14 अगस्त 2007 जिनभाषित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524319
Book TitleJinabhashita 2007 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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