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________________ जैनी कौन हो सकता है? स्व. पं. जुगल किशोर जी मुख्तार । जो जीव जैनधर्म को धारण करता है वह जैनी कहलाता है। परंतु आजकल के जैनी जैनधर्म को केवल अपनी ही पैतृक संपत्ति (मौरूसी तरका) समझ बैठे हैं और यही कारण है कि, वे जैनधर्म दूसरों को नहीं बतलाते और न किसी को जैनी बनाते हैं। शायद उन्हें इस बात का भय हो कि, कहीं दूसरे लोगों के शामिल हो जाने से इस मौरूसी तरके में अधिक भागानुभाग होकर हमारे हिस्से में बहुत ही थोड़ा सा जैनधर्म बाकी न रह जाय ! परंतु यह सब उनकी बड़ी भारी भूल तथा गलती है और आज इसी भूल तथा गलती को सुधारने का यत्न किया जाता कराने वाला जैनधर्म है । अथवा दूसरे शब्दों में यों कहिये कि, जैनधर्म ही सब जीवों का निजधर्म है। इसलिये प्रत्येक जीव को जैनधर्म के धारण करने का अधिकार प्राप्त है । इसी से हमारे पूज्य तीर्थंकरों तथा ऋषि-मुनियों ने पशुपक्षियों तक को जैनधर्म का उपदेश दिया है और उनको जैनधर्म धारण कराया है, जिनके सैकड़ों ही नहीं किंतु हजारों दृष्टांत प्रथमानुयोग के शास्त्रों (कथाग्रंथों) को देखने से मालूम हो सकते हैं। I हमारे अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी' जब अपने इस जन्म से नौ जन्म पहले सिंह की पर्याय में थे तब उन्हें किसी वन में एक महात्मा के दर्शन करते ही जातिस्मरण हो आया था। उन्होंने उसीसमय, उक्त महात्मा के उपदेश से, श्रावक के बारह व्रत धारण किये, केसरी सिंह होकर भी किसी जीव को मारना और माँस खाना छोड़ दिया, और इसप्रकार जैनधर्म को पालते हुए सिंह पर्याय को छोड़कर वे पहले स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से उन्नति करते-करते अंत में जैनधर्म के प्रसाद से उन्होंने तीर्थंकर पद प्राप्त किया । 'पार्श्वनाथपुराण' में, अरविंद मुनि के उपदेश से एक हाथी के जैनधर्म धारण करने और श्रावक के व्रत पालन करने के संबंध में इसप्रकार लिखा है: अब हाथी संजम साधै। त्रस जीव न भूल विराधै ॥ समभाव छिपा उर आनै । अरि मित्र बराबर जानै ॥ काया कसि इन्द्री दंडै । साहस धरि प्रोषध मंडै ॥ सूखे तृण पल्लव भच्छै । परमर्दित मारग गच्छै ॥ हाथीगण डोह्यो पानी । सो पीवै गजपति ज्ञानी ॥ देखे बिन पाँव न राखै। तन पानी पंक न नाखै ॥ निजशील कभी नहिं खोवै। हथिनी दिश भूल न जोवै ॥ उपसर्ग सहै अति भारी । दुर्ध्यान तजै दुखकारी ॥ अघ के भय अंग न हालै । दृढ़ धीर प्रतिज्ञा पालै ॥ चिरौं दुर्द्धर तप कीनो । बलहीन भयो तनछीनो ॥ परमेष्ठि परमपद ध्यावै। ऐसे गज काल गमावै ॥ एकै दिन अधिक तिसायौ । तब वेगवतीतट आयौ ॥ जल पीवन उद्यम कीधौ । कादोद्रह कुन्जर बीधौ ॥ निश्चय जब मरण विचारौ । संन्यास सुधी तब धारौ ॥ इससे साफ प्रगट है कि अच्छा निमित्त मिल जाने हमारे जैनी भाई इस बात को जानते हैं और शास्त्रों में जगह-जगह हमारे परम पूज्य आचार्यों का यही उपदेश है कि, संसार में दो प्रकार की वस्तुएँ हैं- एक चेतन और दूसरी अचेतन | चेतन को जीव और अचेतन को अजीव कहते हैं । जितने जीव हैं वे सब द्रव्यत्व की अपेक्षा अथवा द्रव्यदृष्टि से बराबर हैं- किसी में कुछ भेद नहीं है - सबका असली स्वभाव और गुण एक ही है। परंतु अनादिकाल से जीवों के साथ कर्म-मल लगा हुआ है, जिसके कारण उनका असली स्वभाव आच्छादित है, और वे नाना प्रकार की पर्यायें धारण करते हुए नजर आते हैं। कीड़ा, मकोड़ा, कुत्ता, बिल्ली, शेर, बघेरा, हाथी, घोड़ा, ऊँट, गाय, बैल, मनुष्य, पशु, देव, और नारकी आदिक समस्त अवस्थाएँ उसी कर्म - मल के परिणाम हैं, और जीव की इस अवस्था को 'विभावपरिणति' कहते हैं। जब तक जीवों में यह विभावपरिणति बनी रहती है तब ही तक उनको 'संसारी' कहते हैं और तभी तक उनको संसार में नाना प्रकार के रूप धारण करके परिभ्रमण करना होता है। परंतु जब किसी जीव की यह विभावपरिणति मिट जाती है। और उसका निजस्वभाव सर्वाङ्गरूप से अथवा पूर्णतया विकसित होता है तब वह जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाता है; और इसप्रकार जीव के 'संसारी' तथा 'मुक्त' ऐसे दो भेद कहे जाते हैं। इस कथन से स्पष्ट है कि जीवों का जो असली स्वभाव है वही उनका धर्म है, और उसी धर्म को प्राप्त 12 अगस्त 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524319
Book TitleJinabhashita 2007 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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