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समान थे, (सुधीगणानां) विद्वानों के समूहों के (परिवेषतः) । चकार भिन्नञ्च चिदात्मसंपदा मण्डल से (व्रतः) घिरे रहते थे। (शशाङ्कशोभा इव) चन्द्रमा स शान्तिसिन्धुईदि मे सदा वसेत्॥८॥ की शोभा के समान जो (विशोभते स्म) सुशोभित होते थे, ___ अन्वयार्थ- (सुबुद्धिपूर्वक:) जिन्होंने अच्छी तरह (सः) वह (शान्तिसिन्धुः) श्री शान्तिसागराचार्य (मे हृदि) | बुद्धि पूर्वक (समाधिम् आदाय) समाधि को ग्रहण करके मेरे हृदय में (सदा वसेत्) सदा निवास करें। (च देहतः) देह का (सारं) फल (तपःश्रुतं) तप और श्रुत
भावार्थ- जिस प्रकार चन्द्रमा की कलायें ही उसका (अवाप्य) प्राप्त करके (चिदात्मसंपदां) चैतन्य आत्म वैभव होती हैं जिसके कारण वह संपूर्ण जगत में चमकता, संपदा को (भिन्नं) भिन्न (चकार) किया था (सः) वह है और शांति देता है उसी प्रकार महाव्रतों का उत्कृष्ट वैभव | (शान्तिसिन्धुः) श्री शान्तिसागर आचार्य (मे हृदि) मेरे हृदय
उनकी कला समान था तथा चन्द्रमा जिसप्रकार नभ | में (सदा वसेत्) हमेशा निवास करें। में अनेक तारागणों-नक्षत्रों से घिरा रहता हुआ सुशोभित होता भावार्थ- श्रुत की आराधना और तपस्या करना यही है उसी प्रकार आचार्य देव विद्वान् मुनिराजों आदि साधुगणों | इस देह धारण का फल है, समाधि ग्रहण करने से इस से घिरे हुए चन्द्रमा के समान सुशोभित होते थे। फल की प्राप्ति होती है और उसी से आत्मा, देह से भिन्न शिलाषु तिग्मे शिशिरे तरोस्तले
प्रतिभासती है, ऐसी समाधि जिन्होंने बद्धिपूर्वक अङ्गीकार गिरौ गुहायां समधाद्यमद्वयम्।
की वे शान्तिसागर आचार्य हमारे हृदय में निवास करें। तपस्तपस्यन् समतां विचिन्तयन्
भाद्र शुक्ले द्वितीयायां कुन्थले पर्वते शुभे। स शांतिसिन्धुर्हदि मे सदा वसेत्॥७॥
पक्षैकशून्यपक्षे हि विक्रमे स दिवं ययौ॥ ९॥ अन्वयार्थ- (तिग्मे) ग्रीष्मकाल में (शिलाषु) शिलाओं| अन्वयार्थ- (शुभे) श्री देशभूषण- कुलभूषण महाराज पर (शिशिरे) शीतकाल में (तरोस्तले) वृक्ष के तल में, | की समाधि स्थली होने से शुभ (कुन्थले पर्वते) श्री (गिरौ) पर्वत पर (गुहाया) गुफाओं में (तपः तपस्यन्) | कुन्थलगिरिक्षेत्र पर (भाद्रे) भाद्रमास के (शुक्ले) शुक्ल अनेक प्रकार के तप से तपस्या करते हुए (समतां | पक्ष की (द्वितीयायां) दोज को (विक्रमे) विक्रमसंवत्सर विचिन्तयन्) समताभाव का चिन्तवन करते हुए (यमद्वयम्) | (पक्षकशून्यपक्षे) २१०२ अङ्कानां वामतो गति के अनुसार अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग यम को (समधात्) जिन्होंने धारण | २०१२ में (सः) वह मुनिश्रेष्ट (हि) स्पष्टतः (दिवं) स्वर्ग किया था (सः) (शान्तिसिन्धुः) श्री शान्तिसागराचार्य (मे | को (ययौ) चले गये। हृदि) मेरे हृदय में (सदा वसेत्) निरंतर स्थिर रहें। । भावार्थ- विक्रम सं. २०१२ में श्री कुन्थलगिरि सिद्ध समाधिमादाय सुबुद्धिपूर्वक
| क्षेत्र पर भाद्र शुक्ला द्वितीया तिथि में सल्लेखना पूर्ण हुई। स्तपःश्रुतं सारमवाप्य देहतः।
नम्र निवेदन
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विनीत रतनलाल बैनाड़ा
प्रकाशक
- अगस्त 2007 जिनभाषित 11
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