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________________ श्रमण के मूलगुणों का नैतिक सामाजिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण डॉ. श्रेयांसकुमार जैन भारतीय संस्कृति में जैन और बौद्ध साधुओं की , मुख्य गुणों को मूलगुण कहते हैं, जिसप्रकार मूल श्रमण संज्ञा है। प्रकृत में दिगंबर मुनि के पर्यायवाचक के | जड़ के बिना वृक्ष नहीं ठहरता, उसीप्रकार मूलगुणों के रूप में श्रमण शब्द ग्राह्य है जिसकी व्युत्पत्ति "श्राम्यति | बिना श्रमण के व्रत नहीं ठहरते। अब श्रमण के मूलगुणों मोक्षमार्गे श्रमं विदधातीती श्रमणः" है। इस व्युत्पत्ति के | पर विचार किया जा रहा हैअनुसार जो मोक्षमार्ग में श्रम करता है, वह श्रमण कहलाता आचार्य कुंदकुंद मूलगुणों को बतलाते हुए लिखते है। आचार्य कुंदकुंद इसे परिभाषित करते हुए कहते हैं- | समसत्त बंधवग्गो समसहदक्खो पसंसणिंद समो। वदसमिदिदियारोधो लोंचावस्सयमचेलमण्हाणं। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समोसमणो।।३/४१ खिदिसयणमदंतधोवणं ठिदिमोयणमेगभत्तं च॥२०८॥ प्रवचनसार एदेखलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिंपण्णत्ता॥२०९॥ जो शत्रु और बंधु वर्ग में समता बुद्धि रखते हैं, सुख प्रवचनसार दु:ख प्रशंसा और निंदा में समान हैं। पत्थर के ठेले और अर्थात् पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियों का सुवर्ण में जिनकी समान बुद्धि है तथा जीवन और मरण | रोध, षड् आवश्यक, केश लोंच, अचेलकत्व, अस्नान, में जिनकी समान बुद्धि है तथा जीवन और मरण में जिनके | भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़े खड़े भोजन, एक बार आहार समता भाव है ऐसे मुनि ही श्रमण कहलाते हैं। ये वास्तव में श्रमणों के २८ मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं। ___ श्रमण ही कर्म बंध से छुटकारा पाता है। दुःखों की | इनके पृथक-पृथक स्वरूप को जानकर वर्तमान में निवृत्ति भी उसी की होती है इसीलिए कहा भी गया है। उनकी प्रासंगिकता और साधकों द्वारा पालन विधि भी "तात्पर्य यह है कि मुनिपद निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्रा धारण । जानना आवश्यक है एतदर्थ प्रत्येक मूलगुणों का लक्षण किये बिना यह जीव सांसारिक दुःखों से निवृत्त नहीं हो | बतलाते हए उसकी वर्तमान पालन व्यवस्था पर भी विचार सकता है श्रमण मुनि का भाव या कर्म श्रामण्य है। जो | प्रस्तत हैसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों में अहिंसा महाव्रत- प्रमाद के वशीभूत होकर प्राणियों युगपत् प्रवर्तता है, वह एकाग्रता को प्राप्त है, ऐसा माना | के इंद्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास प्राणों का घात गया है और उसी का श्रामण्य मुनिपना पूर्णता को प्राप्त | नहीं करना अर्थात सभी प्राणियों पर दया भाव रखना अहिंसा होता है। जो अन्य द्रव्य को प्राप्तकर मोह करता है, राग महाव्रत है। करता है, द्वेष करता है, वह अज्ञानी है और प्रकार के कर्मों सत्य महाव्रत- प्रमादवश राग, द्वेष, मोह, चुगली, से बंध को प्राप्त होता है। किंतु जो बाह्य पदार्थों में न मोह | दा मात्सर्य आदि दोषों से भो ईर्ष्या. मात्सर्य आदि दोषों से भरे हुए असत्य भाषण का करता है, न राग करता है और न द्वेष करता है वह श्रमण | तथा जिस सत्य भाषण से प्राणियों को पीडा पहुँचे ऐसे विविध कर्मों का क्षय करता है। ये श्रमण शुभोपयोग और | भाषण का त्याग करना सत्य महावत है। शुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार के होते हैं। उनमें अचौर्य महाव्रत- प्रमादवश किसी भी स्थान पर पड़े शुद्धोपयोगी श्रमण आस्रव से रहित होते हैं और शुभोपयोगी | ए, भूले हुए, रखे हुए द्रव्य को तथा पुस्तक, उपकरण आस्रव सहित होते हैं। दोनों ही श्रमण मोक्ष के अधिकारी | एवं शिष्य आदि पर द्रव्यों को बिना दिए ग्रहण नहीं करना हैं। इनमें बुद्धिपूर्वक मूलगुणों की परिपालना ही चारित्र को | अचौर्य महावत है। धारण करना है। चारित्र के माध्यम से ही कर्मबंध को नष्ट ब्रह्मचर्य महाव्रत- मनुष्यिनी, तिर्यंची और देवांगनाओं करने का पुरुषार्थ चलता है और इसी के द्वारा यथाख्यात | में तथा उनके चित्र एवं काष्ठ पाषाण आदि की मर्ति में चारित्रसहित स्वरूप प्रगट होता है। इसके प्रकटीकरण में | राग परिणामों का त्याग करना ब्रह्मचर्य महावत है। मूलगुणों की मुख्य भूमिका होती है। अत: इन्हीं का नैतिक । अपरिग्रह महाव्रत- क्षेत्र, वास्तु आदि दश प्रकार के सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझने का प्रयास | बाह्य परिग्रह. मिथ्यात्व. क्रोध, मान, माया. लोभ एवं नौ जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 23 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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