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सल्लेखना : देहविसर्जन की वैज्ञानिक प्रक्रिया
ब्र. पुष्पा जैन बढ़ा देता है। जिन व्यक्तियों में इन तीनों का संतुलन बिगड़ जाता है, उनकी पाचन शक्ति क्षीण होने लगती है । वृद्धावस्था आने तक देह इतनी कमजोर हो जाती है कि उसके दाँत, आँत, लीवर, प्लीहा, किडनी, हार्ट, फेंफड़े, हड्डियाँ, नसें इत्यादि सहित सम्पूर्ण पाचनतन्त्र ही कमजोर हो जाता है । ऐसी स्थिति में नितप्रति हल्का, सुपाच्य आहार लेने का क्रम बन पड़ता है। इसतरह शुरू होता है देहविसर्जन का क्रम । जिनको यह ज्ञान हो जाता है, वे अपनी साधना को दृढ़ करते हुये शरीर के साथ-साथ कषायों को भी कृश करना शुरू कर देते हैं। वे मानते है कि जब देह ने पदार्थों से, आत्मा से सम्बन्ध विसर्जन शुरू कर दिया है, तब हमें भी उन पदार्थों से, उस देह से ममत्व विसर्जन शुरू कर देना चाहिये। जब सृजन के समय आहार कम रहता है तथा कषायें भी कम रहती हैं, तब यह विसर्जन का समय है, आहार तो स्वतः कम होता जा रहा है। अतः हमें कषाय, राग-द्वेष, ईर्ष्या, तृष्णा, भोगाकांक्षा और देह का, परिवार का ममत्व भी कम कर देना चाहिये । जब आहार को पचाने की क्षमता घट रही है, तो गरिष्ठ, इष्ट, भारी, तले पदार्थों से मोह छोड़ते हुये, क्रमशः खाद्य, स्वाद्य, लेह्य को भी कम करते हुये पेय पर आना चाहिये। फिर उसकी भी इच्छा जब न हो, तो उसका भी अर्थात् जल का भी त्याग कर देना चाहिए। (विशेष जानकारी के लिये देखें, 'भगवती आराधना')।
देह का सृजन और विसर्जन एक कार्मिक घटना है। सृजन के समय आहार वर्गणाओं का सहयोग जिस क्रम से होता है, ठीक इससे विपरीत क्रम देह विसर्जन के समय होता है । सामान्य जीव इसे नहीं जान पाते हैं, फलतः अपने अज्ञान और मोह के कारण देह से राग बढ़ाते हैं और सल्लेखना का विचार नहीं बना पाते। जिसतरह कोई शिशु जब माँ के गर्भ में होता है, तब वह नाल के द्वारा माँ के पाचन तन्त्र से रसाहार प्राप्त करता है। वह पतला अर्थात् पेयरूप में होता है। जन्म के बाद माँ के दूध का पान करता है, वह भी पेय रूप में ही। छह माह का होते-होते दाल का पानी या पतली चाँटने योग्य खीर लेने लगता है। आज की मातायें सैरेलक आदि का उपयोग कर रही है, जिसे हम लेहा कहते हैं। परिवार में यह ज्ञान परम्परा से प्राप्त होता रहता है। पूरा परिवार अनेक प्रकार के व्यंजनों का सेवन करता है और शिशु सिर्फ लेह्य और पेय आहार ही ग्रहण करता है। क्या इसे दुर्व्यवहार कहा जायेगा ? नहीं! यह तो समझदारी का कार्य माना जावेगा, क्योंकि पचाने की योग्यता के अनुसार ही तो आहार कराया जायेगा, अन्यथा बीमारी का शिकार हो जायेगा। बड़े लोग मलाई खाते हैं और शिशु को पानी मिला दूध पिलाते हैं, यह स्वस्थ रहने का सिस्टम है, जिसे सारी उम्र ध्यान में रखना पड़ता है। शिशु जब दो वर्ष से अधिक का हो जाता है, तब उसे हलका सुपाच्य खाद्य आहार देना शुरू करते हैं, जिससे उसकी देह का उचित संपोषण होता है। शुद्ध निर्दोष पेय, लेह्य, खाद्य पदार्थों का सेवन करतेकरते कभी-कभी वह स्वाद्य आहार भी लेता है, जो उसकी पाचन क्रिया में सहायक होता है, जैसे सौंफ, अजवायन, लोंग, इलायची आदि। धीरे-धीरे वह चारों प्रकार का आहार लेने का ज्ञान और पचाने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। मन, वचन, काय के द्वारा किया गया श्रम पाचनक्षमता को और
कषायों का त्याग, देह त्याग से भी कठिन होता है। इसके लिये गुरुसान्निध्य की आवश्यकता होती है, क्योंकि अनादिकालीन संस्कार अकेले से नहीं छूटते । शास्त्रों में कहा है
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आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक-श्रावकाचार में कहा है
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ अर्थात् प्रतिकाररहित उपसर्ग के आने पर, दुर्भिक्ष के पड़ने पर, बुढ़ापा के आने पर और असाध्य बीमारी के आने पर धर्म की रक्षा के लिये देह के विसर्जन को सल्लेखना कहा है
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'दुर्लभो विषयत्यागः दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् । दुर्लभा सहजावस्था, सद्गुरोः करुणां बिना ॥'
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अर्थात् गुरु की करुणा के बिना विषयों का त्याग, तत्त्व का दर्शन और सहज समाधि दुर्लभ होती है । इसलिये साधक विधिपूर्वक योग्यगुरु से समय आने पर सल्लेखना व्रत लेते हैं। गुरु उन पर करुणा करते हैं और उन्हें व्रत देकर क्षपक बनाते हैं और वे स्वत: हो जाते है निर्यापकाचार्य । वह क्षपक ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागद्वेषादिभावकर्म और शरीर आदि नोकर्मों के चक्रव्यूह से मुक्त होने का पुरुषार्थ करता है, जिसमें गुरु पल-पल सहायक होते हैं। आगम में तो एक क्षपक की सल्लेखना में आचार्यसहित 48 मुनियों द्वारा
जून - जुलाई 2007 जिनभाषित 21
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