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________________ परिचर्या स्वयं करना) (२) इंगिनीमरण (नियत देश में ही। साधुओं का आहार दान भी दिया जाता है। इस समय चीनी, शरीर की परिचर्या स्वयं करना) और (३) प्रायोपगमन मरण | तिब्बती और जैन, बौद्धधर्म में भी लगभग यही रूप मिलता (शरीर की परिचर्या से मुक्त रहकर मात्र आत्मध्यान में लीन | है। हो जाना)। आचार्य शिवार्य ने मरण के पाँच भेद बताये हैं- | मेसापोटामियां और मिस्र संस्कृति में मृत्यु के बाद बालमरण, बाल-बाल मरण, पण्डितमरण, पण्डित- | ईश्वर रूप न्यायाधीश के सामने अपना पूरा लेखा-जेखा देना पण्डितमरण और बाल पण्डितमरण। पण्डित-पण्डित मरण | पड़ता है। हेब्रिक संस्कृति में मृत्यु की विशेष अवधारणा की सल्लेखना जैन-संस्कृति की विशिष्ट देन है। जैनेतर | नहीं है क्योंकि वहाँ शरीर और आत्मा वापिस यथास्थान चले संस्कृति में ऐसा प्रावधान देखने को नहीं मिलता। वैदिक | जाते हैं। उसे ईश्वर की सृष्टि का स्वाभाविक एक पवित्र संस्कृति में प्रायोपवेशन, प्रायोपगमन जैसे कतिपय शब्द अवश्य भाग माना जाता है पर है वह पाप का फल। उसे मसीहा के मिलते है पर उनमें वह विशुद्धता नहीं दिखाई देती जो | सामने जाना पड़ता है। सल्लेखना में होती है। यह न आत्महत्या (Suicide) का क्रिश्चिनिटी में आत्मा का पुनर्जन्म कुछ दूसरे रूप में रूप है और न इसे Euthanasia या MercyKilling का ही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि उसमें पुनर्जन्म रूप कह सकते हैं। ऐसे मरण आध्यात्म दृष्टि शून्य होते हैं। होता है जिसे Resurrection कहा जाता है। मरने के बाद मात्र असक्ति का संभार ही उन्हें कहा जा सकता है। आत्मा को स्वर्ग, नरक या विशद्धि के लिए भेज दिया जाता जैनेतर दर्शनों में सल्लेखना की अवधारणा | है। मृत्यु के समय ईश्वर की प्रार्थना ही सबसे बड़ी शरण ___ मृत्यु तीन प्रकार की हो सकती है- शारीरिक, | है। मानसिक और आध्यात्मिक। आध्यात्मिक मृत्यु को ही जैनेधर्म | इस्लाम में अल्ला को ही एक मात्र ईश्वर माना गया में सल्लेखना कहा गया है। आत्म साक्षात्कार के माध्यम से है। मृत्यु के समय प्रार्थना की जाती है कि वह उसके सामने ही उसे प्राप्त किया जा सकता है। लगभग सभी धर्मों में | खड़ा रहे। वह अल्लाह से क्षमा याचना करता है और उससे किसी न किसी रूप में आध्यात्मिक मृत्यु को स्वीकार | पवित्र होने की प्रार्थना करता है और फिर अल्लाह में समाविष्ट किया गया है। वैदिक, जैन, बौद्ध, चीनी, तिब्बती और | हो जाता है। पुनर्जन्म यहाँ नहीं है। मरते समय कुराण का र्शनों में उसका मूल उद्देश्य आत्मानुभति या पाठ सुनता / पढ़ता है और पापों से मुक्त करने की प्रार्थना आत्मज्ञान प्राप्त करना रहा है और पाश्चात्य दर्शनों में आत्मा | करता है। से मुक्ति प्राप्त करना अथवा पुनर्जन्म प्राप्त करना रहा है। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो मृत्यु के समय सल्लेखना जैसा कोई शब्द वैदिक संस्कृति में नहीं | सभी धर्मों में अपने इष्टदेव के प्रति श्रद्धा और भक्ति व्यक्त है। पर नचिकेता और यम तथा अर्जुन और कृष्ण के बीच | की जाती है स्तवन या सूत्रपाठ करके और कृत कार्यों का हुए वार्तालाप से आत्मसमर्पण रूप भक्तियोग का रूप सामने प्रायश्चित कर निरासक्ति पूर्वक जीवन का अन्तिम समय अवश्य आता है। उपनिषद साहित्य में संसार (जन्म-मरण) निकाला जाता है। इस प्रक्रिया में जैनधर्म की सल्लेखना का विज्ञान का विकास हुआ है और अविद्या रूप कर्म के विनाश जो गहरा रूप हमारे सामने रहता है वह अन्यत्र नहीं मिलता। से मुक्ति प्राप्त की जाती है समाधि के माध्यम से। इससे Euthanasia और सल्लेखना (Spiritual death) अधिक कुछ नहीं मिलता। मृत्यु के बाद ही क्रियाकाण्ड | Euthanasia का अर्थ है Good death या dying व्यवस्था में मंत्रपूर्वक गंगाजल छिड़कना आदि कार्य इसकी | well इसे Psysician-assisted suicide कहा जाता है परिधि के बाहर हैं। विदेशों में व्यक्ति एक लम्बी असहनीय बीमारी से जब तंग बौद्धधर्म में मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का मार्ग हो जाता है तो वह चिकित्सक की सहायता से मृत्यु पाकर विपश्यना साधना है। किसी गोतमी और सिद्धार्थ को मृत्यु- उससे मुक्त हो जाना चाहता है। इसे Slippery slope भी दर्शन देकर ही जाग्रत किया गया था। बुद्ध ने चार आर्य | कहा जाता है। यह एक प्रकार से आत्महत्या ही है जो सत्यों के माध्यम से अनात्मवाद सिद्धांत की प्रतिष्ठा कर | सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से अनुचित और कानून के मृत्यु को जीतने का पथ प्रशस्त किया है। मृत्यु के समय | विरुद्ध है। जीवन का यद्यपि यह एक स्वाभाविक परिणाम बौद्ध सूत्रों का पाठ किया जाता है और बाद में परित्राणकर | है पर किन्हीं विशेष परिस्थितियों में क्या दूसरे के माध्यम से 18 जून-जुलाई 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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