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क्या शासन देवी-देवताओं की पूजा-विधान-अनुष्ठान उसने गाली क्यों दी?
तीर्थंकरों के समान होना चाहिए? तीर्थंकर सेव्य हैं और शासन देव - देवियाँ उनके सेवक; क्या सेव्य और सेवक की पूजा
अर्चना एक समान होना चाहिए?
उक्त प्रस्ताव रखे जाने से पूर्व शास्त्रिपरिषद् के पूर्व
यदि आपका उत्तर हाँ में है तो हम जानना चाहते हैं कार्याध्यक्ष एवं महामंत्री तथा वर्तमान उपाध्यक्ष डॉ. जयकुमार कि यह किस शास्त्र में लिखा है ? जैन (मुजफ्फरनगर) ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि यदि क्या प. पू. आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज की कोई एक व्यक्ति या विद्वान् सदस्य इनका विरोध करता है परम्परा यह कहती है ? तो यह प्रस्ताव पारित नहीं किये जायेंगे, अतः श्री महेन्द्र जैन 'मनुज' का यह लिखना कि " जिसकी छाँव में बैठिये, उसके अनुकूल कहिये, सूत्रानुसार लिये गये निर्णय सिर्फ मुनिपुङ्गव परिसर तक के लिए ही मान्य थे, उससे बाह्य परिसर के लिए नहीं?" नितांत अनुचित है । वे स्वयं वहाँ उपस्थित थे। यदि वे पीठ पीछे विपरीत राय रख सकते हैं तो सामने
मैं विगत लगभग २५ वर्षों से शास्त्रिपरिषद् / विद्वत्परिषद् से जुड़ा हूँ उसमें कभी भी विद्वानों के बीच १३ या २० पंथ के नाम पर भेद नहीं किया गया, उसका इतिहास भी ऐसा ही रहा है। अब आप क्यों इस तरह का भेद उत्पन्न कर इतिहास में अमर होना चाहते हैं। रही बात २० पंथी विद्वानों के अनुमोदन की, तो खुले अधिवेशनों में जो भी निर्णय बहुतम या सर्वसम्मति से लिए जाते हैं, वे सब पर लागू होते हैं चाहे वे उपस्थित हों या न हों। अतः किसी से अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। जिन सदस्यों को अपनी ही परिषदों के निर्णय स्वीकार्य नहीं हैं उन्हें स्वयं उन परिषदों में रहने पर विचार करना चाहिए। दोनों परिषदों के संविधान तो इस विषय में स्पष्ट हैं कि जो उनकी रीतिनीति को मानता है वही इनका सदस्य बन सकता है/ सदस्य रह सकता है।
प. पू. मुनि श्री सुधासागरजी महाराज न किसी को अपमानित करते हैं, न किसी के प्रति घृणित व्यवहार करते हैं और न ही आरोप लगाते हैं अतः आपका विषय में आक्षेपात्मक कथन बेबुनियाद है। हाँ, सच्चाई यदि कड़वी हो तो भी पचाने की ताकत होनी चाहिए। नीतिकार तो कहते हैं कि यदि किसी ने गाली भी दी तो उस पर विचार करो कि
सोचिए ये कि क्यों वो दे गया गाली, टालिए मत कि कोई सिरफिरा होगा।
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नहीं बोले ? जैन धर्म तो निर्भीकता और अभय का पक्षधर होता हैं; फिर अभिव्यक्ति में भय कैसा?
अपने उक्त प्रस्ताव के सन्दर्भ में लिखा है कि "क्या दिगम्बर जैन समाज एक और अपवाद / एक और विघटन झेलने को तैयार है?" तो ध्यान रखें कि आपके भड़कने से समाज न विघटित होगा और न समाज का अपवाद होगा। दो प्रश्नवाची चिह्न लगाने से भी कोई सही प्रश्न बन जाये यह जरूरी नहीं। हाँ, यदि आप तीर्थकर और स्वर्ग के देवों को एक जैसा मानकर पूजोंगे तो यह जिनेन्द्रदेव का अवर्णवाद अवश्य होगा। जिसे कोई भी जिनागम सेवी झेलने के लिए तैयार नहीं होगा । आशा है श्री भरत काला सही सन्दर्भ में अपनी अभिव्यक्ति देंगे और समाज को गुमराह करने से बचेंगे।
मंत्री- अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्, एल- ६५, न्यू इंदिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.)
संस्थान के गौरव
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर के छात्र 'श्री पुलक गोयल' ने 'प्राकृत अपभ्रंश - जैनागम' में यू.जी.सी. की तरफ से दी जाने वाली जे. आर.एफ. (जूनियर रिसर्च फेलोशिप) लेकर अपनी अद्भुत प्रतिभा दिखलाकर संस्थान को गौरवान्वित किया। संस्थान उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है ।
साहित्य में स्वर्णपदक
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर के पूर्व छात्र राजेन्द्र जैन 'राजाभाऊ' (महा.) ने एम.ए. (साहित्य) में तिरुपती विद्यापीठ से स्वर्णपदक प्राप्त किया तथा अन्य क्षेत्रों में तीन स्वर्णपदक और लेकर अपनी क्षमता का परिचय दिया। संस्थान यही कामना करता है कि आप अपने जीवन में अग्रसर होते रहें ।
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आशीष जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर
मार्च 2007 जिनभाषित 29
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