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विद्वत्परिषद् की ओर से एक स्पष्टीकरण : आम्नाय एक ही है
डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन अभी कुछ दिन पूर्व मुझे श्री भरतकाला (मुम्बई) । तक कि कानजी पंथ भी इन्हें मानते हैं; किन्तु मि. काला जी द्वारा प्रेषित दो पृष्ठीय लेख मिला, जिसका शीर्षक था- | ये सब लोग आपकी तरह न एक आँख से देखते हैं और न "दिगम्बर जैन समाज कृपया विचार करे।" उसमें मुनिपुङ्गव | अपने वक्तव्यों से 'चोर की दाढ़ी में तिनका' लोकोक्ति को श्री सुधासागरजी प्रेरणा व सान्निध्य में दि.४ अक्टूबर, २००६ | चरितार्थ करते हैं। आपमें साहस नहीं था अतः आपने अपने को आयोजित शास्त्री व विद्वत्परिषद् के संयुक्त अधिवेशन | परिपत्र में अधूरा निर्णय प्रकाशित किया और 'शासन देवीमें दोनों परिषदों को दिये गये मुनिपुङ्गव श्री सुधासागरजी | देवताओं की पूजा-विधान-अनुष्ठान आदि आगम सम्मत महाराज के आशीर्वाद / वक्तव्य पर टिप्पणी करते हुए कहा | नहीं हैं' के आगे मात्र दो बिन्दु...लगाकर अपनी भड़ाँस
य दो नहीं हैं ? यदि आम्नाय भी दो हैं | निकालना प्रारम्भ कर दी: जबकि सर्वसम्मति से पारित निर्णय १३ और २०.फिर २० पंथ आम्नाय मान्य शासन देवताओं | में स्पष्ट था और है किके अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगानेवाला यह निर्णय संयुक्त शासन देवी-देवताओं की पूजा-विधान-अनुष्ठान आदि अधिवेशन में सर्वसम्मति से कैसे ले लिया गया कि शासन | आगम सम्मत नहीं हैं अतः तीर्थकरों के समान उनका पूजनदेवी-देवताओं का पूजन-विधान-अनुष्ठान आदि आगम | विधान-अनुष्ठान नहीं करना चाहिए। सम्मत नहीं हैं..। इसके साथ ही जो और प्रश्न उपस्थित
आप यहाँ यह भी नहीं कह सकते कि हम लोगों ने किए गए हैं उन पर मेरा निवेदन है कि समाज उनके इस
कुछ छिपाया है क्योंकि उक्त अपील जिनभाषित, जैन हलचल, परिपत्र / लेख से विचलित न हो बल्कि उन्हीं के भावनानुसार
विद्वद्विमर्श, जैनमित्र, जैनप्रचारक, जैनसंदेश, पार्श्वज्योति आदि जैन परम्परा / आगम / सिद्धांत के आलोक में विचार अवश्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कर जगजाहिर की जा चुकी है। करे। मेरा तो इतना ही निवेदन है कि
हम तो जो कहते हैं सबके सामने कहते हैं, किसी से ना कुछ पंथ और आम्नाय एक नहीं होते, एक हो जायें तो | छिपाते हैं और न दो बिन्दु...लगाकर भ्रमित करते हैं। बहत अच्छी बात है। जैन परम्परा में वर्तमान में एक ही । रही बात मुनिपुङ्गव श्री सुधासागरजी महाराज के आम्नाय चल रही है, जो मान्य भी है और वह है | सान्निध्य की, तो हम यहाँ स्पष्ट रूप से बता दें कि मुनिपुङ्गव 'कन्दकन्दानाय'। सभी मर्तियों शास्त्रों गरुओं के मख से | श्री सुधासागरजी महाराज विद्वानों की सर्वसम्मत राय में तथा पंचकल्याणक प्रतिष्ठामहोत्सव आदि में इसी कन्दकन्दा- | सच्चे आगमिक संत हैं। वे भले ही आचार्य न हों किन्त. म्नाय का उल्लेख मिलता है। हजारों मूर्ति व अन्य शिलालेख आचार्य से कम भी नहीं हैं। मेरी दृष्टि में हर संत समाज का इसके प्रमाण हैं। अत: आम्नाय तो एक ही है कुन्दकुन्दाम्नाय। 'आचार्य' ही है उसके लिए किसी की अनुमति की अतः १३ पंथ आम्नाय या २० पंथ आम्नाय के लिए जैनागम | आवश्यकता नहीं है। समाज का आचार्यत्व अगर मनिपङ्गव या जैन परम्परा में न पूर्व में कोई स्थान था और न अब है, न | श्री सुधासागरजी महाराज जैसे संत नहीं करेंगे तो फिर कौन आगे होगा।
करेगा? मुझे समझ में नहीं आता कि यदि समाज उनका ___ आपका यह मानना कि शास्त्रिपरिषद् का उक्त निर्णय | मार्गदर्शन लेती है, उन्हें मानती और पूजती है, तो आपको शासन देवताओं के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगानेवाला है; | उनसे तकलीफ क्यों है ? सो यह आपका कोरा भ्रम है तथा समाज को भ्रमित करनेवाला | यहाँ जो बात दर्पण की तरह स्पष्ट प्रतिभासित हो है। वास्तविकता तो यह है कि हमारी दोनों शास्त्री एवं विद्वत रही थी उसे अपनी ही फँक मारकर दर्पण को धुंधला कर परिषदें शासन देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार करती हैं। | फिर यह शिकायत करना कि यह कैसा दर्पण है जिसमें परम पूज्य मुनिपुङ्गव श्री सुधासागरजी महाराज, उनके गुरुवर्य | कुछ दिखलाई नहीं दे रहा है? स्वयं को धोखे में रखने के आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज भी अनेक बार सार्वजनिक | अतिरिक्त और क्या है? रूप से बता चुके हैं कि वे शासन देवताओं के अस्तित्व को | मैं मि. काला से स्वयं पूछता हूँ कि उन्हें उक्त समग्र मानते हैं। ऐसा कोई जैन नहीं हो सकता जो इन्हें न माने, यहाँ । प्रस्ताव में आपत्ति कहाँ है?
28 मार्च 2007 जिनभाषित -
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