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________________ पंचोपचारी पूजा पं. मिलापचन्द्र कटारिया विक्रम सं० ११०४ में होनेवाले श्री मल्लिषेणसूरिने। जैसा कि नित्यमहोद्योत के इस पद्य से प्रकट है 'भैरवपद्मावती कल्प" के तीसरे परिच्छेद में ऐसा कथन दिया है प्रागाहूता देवता यज्ञभागैः प्रीता भर्तुः पादयोरर्घदानैः । क्रीतां शेषां मस्तकैरुद्वहन्त्यः प्रत्यागंतुं यान्त्वशेषा यथास्वम् ॥ १६५ ॥ इसमें विसर्जित देवों के लिये "अर्हंत की शेषा को आह्वानं स्थापनं देव्याः, सन्निधीकरणं तथा । कुर्यादमुना मंत्रेणाह्वानमनुस्मरन् देवीम् ॥ २६ ॥ तिष्ठद्वितयं ठांतद्वयं च संयोजयेत् स्थितीकरणे । सन्निहिता भव शब्दं मम वषडिति सन्निधीकरणे ॥ २७ ॥ गन्धादीन् गृह गृहेति नमः पूजाविधानके । स्वस्थानं गच्छ गच्छेति जस्त्रिः स्यात् तद्विसर्जने ॥२८ ॥ "ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! एहि एहि संवौषट्" इति आह्वानम् । पूजां विसर्जनं प्राहुर्बुधाः, पंचोपचारकम् ॥ २५ ॥ ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! एहि एहि संवौषट् । मस्तकों पर धारण करते हुये " जाने का उल्लेख किया है। जिससे यहाँ शासनदेवों का ही विसर्जन ज्ञात होता है, न कि पंचपरमेष्ठी का। एक बात आशाधर के पूजाग्रन्थों में यह भी देखने में आती है कि वे शासनदेवों की पूजा में तो अर्चना द्रव्यों के अर्पण में "जलाद्यर्चनं गृहाण गृहाण " या " इदमर्घ्यं पाद्यं जलाद्यं यजभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यताम् " इस प्रकार के वाक्य प्रयोग करते हैं। ऐसे प्रयोग उन्होंने अर्हतादि की पूजाओं में नहीं किये हैं। वहाँ तो वे यों 44 “ ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! तिष्ठ तिष्ठ लिखते हैं ठः ठः" इति स्थापनम् । “ ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! मम सन्निहिता भव भव वषट्" इति सन्निधिकरणम् । फिर भी इतना तो कहना ही पड़ता है कि अर्हतादि “ ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! गंधादीन् की पूजा विधि में आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण की परिपाटी चलाने में शायद ये ही मुखिया हों। अपने बनाये प्रतिष्ठा ग्रन्थ की प्रशस्ति में खुद पं० आशाधर लिखते है कि " मैंने इसे युगानुरूप रचा है" युगानुरूप का अर्थ पूजाविधि में इस तरह की नई रीतियाँ चलाना ही जान पड़ता है। गृह्ण गृह्ण नम:' इति पूजाविधानम् । "ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः" इति विसर्जनम् । एव पंचोपचारक्रमः । देव का आह्वान, स्थापन, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन जो किये जाते है उन्हें पंचोपचार कहते हैं इसी का दूसरा नाम पंचोपचार पूजा है, इनका मंत्रपूर्वक जो विधिक्रम है वह ऊपर लिख दिया है। ऐसा प्रतिभासित होता है कि पहिले पंचोपचारी पूजा मंत्र सिद्ध करने के लिए देवताराधन में की जाती थी । अर्हतादि की पूजा में पंचोपचार का उपयोग नहीं किया जाता था । हम देखते हैं कि सोमदेव ने यशस्तिलक में और पद्मनन्दि ने पद्मनन्दिपंचविंशतिका में अर्हंतादि की पूजा में सिर्फ अष्टद्रव्यों से पूजा तो लिखी है, किन्तु आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण, विसर्जन नहीं लिखा है। यह चीज हमको प्रथम आशाधर के प्रतिष्ठापाठ और अभिषेकपाठ में मिलती है। आशाधर ने इतना विचार जरूर रखा है कि अर्हतादि की पूजा में आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण तो लिखा है, किंतु विसर्जन नहीं लिखा है। हाँ शासनदेवों की पूजा में उन्होंने विसर्जन लिख दिया है। 26 मार्च 2007 जिनभाषित 44 'ॐ ह्रीं अर्हं श्री परमब्रह्मणे इदं जलगन्धादि निर्वणामीति स्वाहा ।" Jain Education International आशाधर के बाद इन्द्रनन्दी हुये, जिन्होंने इस विषय और भी आगे बढ़कर अर्हतादिकों की पूजा विधि में वे ही पंचोपचार ग्रहण कर लिये, जो मल्लिषेण ने मंत्राराधन में लिखे हैं । इन्होंने शासनदेवों की ही तरह अर्हतादिकों का विसर्जन भी लिख दिया है। यही नहीं, अर्हतादि की पूजा में द्रव्य अर्पण करते हुये " इदं पुष्पांजलिं प्रार्चनं गृह्णीध्वं गृह्णीध्वं " तक लिख दिया है। (देखो अभिषेकपाठसंग्रह पृष्ठ ३४४) । इन्हीं को आधार मानकर एकसंधि ने भी अर्हतादिकों की पूजा पंचोपचार से करना बताते हुये लिखा है कि- " मैंने यह वर्णन इंद्रनन्दी के अनुसार किया है" यथा एवं पंचोपचारोपपन्नं देवार्चनाक्रमम् । यः सदा विदधात्येव सः स्यान्मुक्तिश्रियः पतिः ॥ इतीन्द्र नंदिमुनीन्द्रजिनदेवार्चनाक्रमः ॥ -परिच्छेद ९वाँ " एकसन्धिजिनसंहिता " ये ही श्लोक कुछ पाठ भेद के साथ 'पूजासार' ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524315
Book TitleJinabhashita 2007 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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