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________________ होता है तब तदनुसार प्रतिपक्षी अपनी जीत हेतु आशावान हो जाता है। यह आशा सत्यमेव का जनक बन जाती है। विद्यमान प्रकरण में नवमन्दिर में विराजित बड़े बाबा का अंतरिम आदेशानुसार, यथास्थिति में रहना सम्भाव्य है भले ही मन्दिरजी का आधिपत्य किसी का भी निर्णित हो। इस स्थिति को अस्वीकार करना अपने को भ्रम में रखना होगा। इस परिस्थिति में नवमन्दिर के निर्माण का कार्य हो जाने की कल्पना करना उचित प्रतीत नहीं होती क्योंकि माननीय न्यायालय ने मूर्ति के स्थानांतरण एवं मन्दिर निर्माण को दुर्भावना रहित (अपराधबोध रहित) माना है। इस टीप का महत्व समझना आवश्यक है। यह भी स्मरणीय है कि अपराध की स्थिति में दण्ड व्यवस्था भी सुनिश्चित है। उसके लिए किसी को व्यग्र होने की आवश्यकता नहीं। जरूरत मात्र निर्णय पूर्व हम पूर्वाग्राही न हों, यही है । ३. मूर्ति पर डोम का निर्माण बड़े बाबा की मूर्ति को संरक्षित करने हेतु डोम के निर्माण के प्रकरण में लेखक श्री अजीत टोंग्या ने पुरातत्व विभाग की उदारता, कुण्डलपुर ट्रस्ट की कृतघ्नता और माननीय न्यायाधीश श्री के.के. लाहोटी जी के स्व-विवेक को प्रश्न चिह्नित किया है। यह तीनों कार्य न्यायालयीन मर्यादा के प्रतिकूल एवं जनभ्रम उत्पन्न करने वाले हैं। यही सही नहीं है कि याचिकाकर्ता पुरातत्व विभाग ने संवेदनशील होकर मूर्ति को ढँकने हेतु अनुमति माँगी या सहमति दी। वस्तुस्थिति यह है कि पहिले पुरातत्व विभाग ने इसका विरोध किया और जब कुण्डलपुर ट्रस्ट ने इसकी आवश्यकता पर जोर दिया तब लोहे के ढाँचे पर फाइवर ग्लास लगाने का प्रति प्रस्ताव रखा। यदि पुरातत्व विभाग संवेदनशील होता तो बुंदेलखण्ड क्षेत्र की बूढ़ी चंदेरी, गोलाकोट, पचराई आदि स्थानों पर जैन मूर्ति का ध्वंश नहीं होता और न ही विभाग कुण्डलपुर ट्रस्ट के प्रस्ताव का विरोध करता । संवेदनशीलता तो तब मालूम पड़ती जब पुरातत्व विभाग स्वयं मूर्ति पर शेड बनाने की प्रार्थना करता, जो नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में कुण्डलपुर ट्रस्ट को कृतघ्न कहना अनुचित, अनाधिकृत और असद्भाव का सूचक है । पुरातत्व विभाग ने विवशता में ट्रस्ट की भावना का अनुमोदन किया कि धूप- पानी से मूर्ति की संरक्षा आवश्यक है । पता नहीं क्यों विद्वान् लेखक असत्य आधार पर पुरातत्व विभाग का समर्थन और प्रशंसा कर रहे हैं । 'शत्रु का शत्रु मित्र' या 'शत्रु के शत्रु के साथ सहभागिता' का सिद्धांत क्रियाशील हो रहा हो तो आश्चर्य Jain Education International नहीं? कुण्डलपुर ट्रस्ट ने यदि न्यायालय के समक्ष न्यायालय की शर्तों पर मूर्ति को ढँकने की अनुमति न माँगी होती तब स्थिति कुछ और हो सकती थी। यह उनकी सद्भावना पूर्ण सोच को दर्शाता है। इसका ही परिणाम था कि नैसर्गिकरूप से 'बड़े बाबा' अपराजेय रहे। वे किसी विभाग, संस्था या व्यक्ति की कृपा के मुहताज नहीं और जो ऐसी भावना रखता है, उसके दुर्भाव का प्रतीक है। विश्वासघात, कृतघ्नता आदि भाव सामाजिक जीवन में घटना सापेक्ष होते हैं। अधिकार और हकों की लड़ाई / विवाद में इनका कोई स्थान नहीं होता । दोनों पक्ष न्यायालय के समक्ष अपना-अपना पक्ष रखते है और न्यायालय गुणदोष के आधार पर माध्यस्थ भाव से अपना निर्णय देता है । इसमें विश्वासघात कहाँ हुआ? कैसे हुआ? यह तो सद्बुद्धि की उपज नहीं कही जा सकती। यह कल्पना करना दुष्कर है कि याचिकाकर्ता न्यायालय के समक्ष विरोधी पक्ष के हित में अपना समर्पण करें। यदि ऐसे संकेत हैं तो उसे अपना प्रकरण वापिस लेकर संवेदनशीलता का प्रमाण-पत्र ले लेना चाहिये। अपने कर्तव्य के प्रति विश्वासघात करना जघन्य अपराध I ४. मूर्ति पर आइरन शेड की स्थिति श्री अजीत टोंग्या ने मूर्ति पर 'आइरन शेड' के निर्माण के बिन्दु पर गहन विचार व्यक्त किये हैं और धार्मिक ग्रंथो का भी संदर्भ दिया है । लेखक की कटुआलोचना पढ़कर ऐसा लगा कि लेखक भावावेश में तथ्य भ्रमित हुआ है और उसने अंवाछनीय, अनुचित निष्कर्ष ग्रहण कर स्वयं भ्रमित हुआ और पाठकों को भ्रमित किया। ऐसा करते समय उसने न्यायिक मर्यादा का भी उल्लंघन किया। कुण्डलपुर ट्रस्ट ने 'आइरन के शेड' के निर्माण का विरोध किया था और उसे जैन परम्परा के प्रतिकूल बताया। 'आइरन के शेड' और निर्माण में 'आइरन का यथा आवश्यक उपयोग' इन दोनों में बहुत अंतर है। पूर्व में तो पाषाण शिलाओं से ही मन्दिर बनाते थे। बाद में सीमेंट, आइरन का उपयोग होने लगा । शिखर ईटों से बनने लगे। मैं इस विवाद में नहीं जाना चाहता । किन्तु इतना निश्चित है कि न केवल जैन परम्परा किंतु वैदिक परम्परा में भी मूर्ति पर लोहे का शेड नहीं बनाया जाता। ऐसी स्थिति में जैनमन्दिर विवादित हो जायेगा सम्भव नहीं है। दिनांक १९/११/२००६ को लगभग छः बजे शाम को एन.डी.टी.वी. पर यह न्यूज प्रसारित हुई- 'बाबरी | मस्जिद पर स्टील का ढाँचा न बनाया जाये ।' यह न्यूज फरवरी 2007 जिनभाषित 17 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524314
Book TitleJinabhashita 2007 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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