SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माननीय न्यायालय के उक्त अंतरिम आदेश से यह निर्विवादरूप से स्पष्ट है कि कुण्डलपुर दमोह के बड़े बाबा अपने अतिशय से पूर्णता सुरक्षित और संरक्षित हैं । मूर्ति का स्वत्व किसी का भी सिद्ध हो, बड़े बाबा अपने नवीन स्थान पर ही विराजित रहेंगे और यह स्थल ही प्राचीन संरक्षित स्मारक समझा जावेगा। विशिष्ट परिस्थितियों में कोई अन्यथा अंतिम निर्णय भी हो तब भी बड़े बाबा अपराजेय रहेंगे, साधार रहेंगे। माननीय उच्च न्यायालय के उक्त अंतरिम आदेश के मूलस्वरूप एवं दूरदर्शितापूर्ण व्यवस्था को दृष्टि ओझलकर, श्री अजित टोंग्या ने 'अधर में कुण्डलपुर' लेखमाला जैन गजट में प्रारम्भ की; वह अयथार्थ, कल्पित एवं सद्भावनाहीन प्रतीत होती है। जिस भाषाशैली तर्कणा - पद्धति का आपने प्रयोग किया वह बहुरूपियाँ जैसी 'एक में अनेक' की लोकोक्ति चरितार्थ करती है । लेखमाला में वे लोक अभियोजक, याचिकाकर्ता के पेरोकार ( पक्षधर ), न्यायाधिपति और अपील अथॉरिटी जैसे सहज दिखाई देते हैं जिसका एक मात्र उद्देश्य, सत्य-असत्य, कुण्डलपुर ट्रस्ट को प्रश्न चिह्नित कर आरोपी सिद्ध करना है। श्रमण संस्कृति, जैनत्व को मर्यादा एवं संस्कृति के प्रतीकों की रक्षा का उससे कई प्रत्यक्ष संबंध दिखाई नहीं देता। उनके द्वारा विकृत रूप से उठाये गये बिन्दु और उनकी अप्राकृतिक समीक्षा से यह बात सिद्ध हो जाती है। यहाँ ये स्पष्ट करना समीचीन होगा कि प्रकरण माननीय न्यायालय के समक्ष निर्णयार्थ विचाराधीन होने के कारण प्रकरण के औचित्य पक्ष या विपक्ष में मत व्यक्त करना लेखक का काई उद्देश्य नहीं है और न वह किसी व्यक्ति/संस्था से सम्बद्ध है । प्राचीन धरोहर की रक्षा सुरक्षा हेतु उसकी अपनी स्वतंत्र भावनात्मक धारणा है । १. मध्यस्थ की भूमिका बहस जारी है (जैन गजट २८/०९/२००६) में लेखक ने प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जी के सुझावों (जैन गजट २४/०८/२००६) के संदर्भ में असली अपराधी की खोज, मार्गदर्शक एवं सूत्रधार कौन, संवैधानिक संदिग्धता के बिन्दुओं को रेखांकित कर मध्यस्थकर्ताओं का मार्गदर्शन किया है। यहाँ प्रथम तो मध्यस्थकर्ता का अस्तित्व संदिग्ध है । किसने किसको मध्यस्थकर्ता बनाया जबकि प्रकरण केन्द्रीय पुरातत्व विभाग की ओर से न्यायालय में लंबित है। दूसरे, प्राचार्यजी ने अपने सुझाव श्री पं. हेमन्त काला एवं अन्य सहभागियों के अनुरोध पर दिये। ये विद्वान् किस पक्ष के प्रतिनिधि हैं और 16 फरवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International किस लक्ष्य (गर्भित) को पूर्ण करने सुझाव माँगे, यह स्पष्ट नहीं है। यह एक अद्भुत संयोग है कि संदर्भित और कुण्डलपुर कोहराम के लेखक की लेखन शैली, अभिव्यक्ति एवं तर्कणा पद्धति एक सी है दोनों में अंतर करना कठिन है। ऐसी स्थिति में और जो संकेत मिले हैं उनसे यही ध्वनित होता है कि आरोपकर्ता, आलोचनाकर्ता, समाधान - याचक, समाधानकर्ता और उनके प्रेरक महानुभाव सभी एक छत के नीचे बैठकर योजनाबद्धरूप से यह कार्य सम्पादित कर रहे हैं । इन्दौर नगरी जो कभी जैन संस्कृति के संरक्षण का केन्द्र मानी जाती थी, अब वह संस्कृति की विराधना के प्रतीकरूप में उभर रही है । भ. महावीर की जन्मभूमि का अपहरण. बद्रीनाथ का मूर्ति विवाद और अब कुण्डलपुर दमोह प्रकरण को विकृत दिशा देना, यह सब कार्य एक ही कड़ी में देखे जाने लगे हैं। तीसरे, विद्वान् लेखक ने अपराध और प्रकृति पर अंकुश लगाने हेतु जो संकल्प किया है वह निरपराधवृत्ति से ही सम्भव होगा । चा.च. आचार्य शांतिसागर जी के नाम पर उनकी नीति के विरुद्ध कार्य करना, किसी आचार्य को अपराधी मानकर अनुचित कथन करना, पूर्वाचार्यों पर आपातकाल में (भयभीत होकर) छद्म नाम और भेष के आश्रय का निन्द्य कथन करना, बड़े बाबा की अखंड मूर्ति को बीच से खंडित जैसी दो रंगों में प्रकाशित कर उनकी अविनय करना आदि ऐसे कृत्य हैं जो लेखक और उसके आश्रयदाताओं की मनोवृत्ति एवं असहज कार्य शैली दर्शाते हैं। न्यायाकांक्षी को स्वच्छ हाथों से न्याय माँगना चाहिये; तथा क्या वे इस कसौटी पर खरे उतरे हैं; विचारणीय है। २. सत्यमेव जयते श्री टोंग्याजी ने 'सत्यमेव जयते' के प्रतिकाररूप में 'कुण्डलपुर प्रकरण में दिगम्बर जैन समाज की पराजय तय' नामक आलेख के प्रकाशन की सूचना दी। तदर्थ धन्यवाद । कलियुग में 'सर्वज्ञ' भव्य हैं यह ज्ञातकर हर्ष हुआ जो जयपराजय को सुनिश्चित करते । जय-पराजय तो तथ्यों, साक्ष्यों और उनके प्रस्तुतिकरण पर निर्भर करता । कभीकभी जीता केस हार जाते हैं और हारा केस जीत जाते हैं। समझ में नहीं आता कि लेखक की रूचि पराजय की ओर क्यों है? उसमें किस कारण माध्यस्थ भाव का लोप हुआ और वह कैसे नायकत्व के विरुद्ध कार्य शील हुआ। इसका रहस्य समझना अपेक्षित है। यह ज्ञातव्य है कि प्रकरण में स्टे ( स्थगन) आदेश मिलता है तो पक्षकार की आधी जीत सम्भावित हो जाती है और जब 'स्टे' हटता है या संशोधित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524314
Book TitleJinabhashita 2007 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy