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________________ हमारा भ्रम दूर करने पर्याप्त है। लोहा लोहा ही होता है अन्य धातुएँ लोहे में सम्मिलित नहीं होती, वे अलोह धातु के नाम से जगत प्रसिद्ध हैं। इसमें कहीं किसी को भ्रम नहीं होना चाहिये । 'लोहे के शेड' के संदर्भ में ही माननीय न्यायालय ने अपने निष्कर्ष ग्रहण किये; न कि लोहे को बिन्दु मानकर । मेरी समझ में कुण्डलपुर ट्रस्ट ने भी इसी भावना से 'लोहे के शेड' का विरोध किया जो किसी भी रूप में विश्वासघात या छल नहीं कहा जा सकता। भारत मन्दिरों के वैभव से महान् हुआ । भारतीय संस्कृति में कहाँ-कहाँ 'लोहे के शेड' के मन्दिर हैं, विद्वान् लेखक के अनुभव में आये हों तो, कृपया सूचित करने की कृपा करें। कोई नंदीश्वर द्वीप जिनालय 'लोहे के शेड' का बना हो तो वह भी बतावे । फिर एक बात और विचारणीय है कि जब रागी देवी-देवता का पूजक वीतरागी जैनधर्म का 'जैन' हो सकता है तब 'आइरन शेड' आइरन प्रयुक्त मन्दिर जैनमन्दिर क्यों नहीं हो सकता ? इतना ज्ञान तो इतर धर्मावलम्बियों का भी है। ----- 11 लेखक श्री टोंग्या जी ने इसी संदर्भ में माननीय न्यायालय के बारे में लिखा कि "यहाँ चिन्ता का विषय यह है कि फ्रेम तो ताँबे या लकड़ी की भी बनाई जा सकती थीफिर उच्च न्यायालय ने लोहे के अलावा अन्य किसी भी विकल्प का प्रस्ताव पुरातत्व विभाग से क्यों नहीं माँगा ? - • स्वयं ही सिद्ध करता है कि लोहा कहने से उच्च न्यायालय को तांबा व लकड़ी भी इष्ट है, - इसी उदार कल्पना के आधार पर लेखक ने लकड़ी, तांबा और लोहे को एकार्थी मानकर मनमाने निष्कर्ष निकाल लिये। भाई टोंग्याजी, ऐसी स्थिति में अदालतें अपनी ओर से सुझाव आदि नही माँगती। वे तो प्रस्तुत साम्रगी के आधार पर निर्णय देती हैं। यह तो पुरातत्व विभाग का काम था कि वह 'लोहे के फ्रेम' के स्थान पर लकड़ी / तांबे के फ्रेम का प्रस्ताव माननीय अदालत के समक्ष रखता और अदालत उस पर निर्णय करती । आप जैसा तार्किक कानून विद वहाँ उपस्थित होता तो आपको इस विषय पर जन-भ्रम उत्पन्न करने का अवसर ही नहीं मिलता और पुरातत्व विभाग का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता। जो अपेक्षा आपने माननीय न्यायाधीश महोदय से की, वह तो अपीलीय न्यायालय भी ऐसा नहीं करता । जिस प्रकार प्रथम दृष्टया आप पुरातत्व विभाग की पैरवी कर रहे हैं अदालतें किसी भी पक्ष के प्रति ऐसा व्यवहार नहीं करतीं यही उसकी निष्पक्षता है। इस बिन्दु पर इतना लिखना ही पर्याप्त है जो भ्रम निवारण कर देगा। 18 फरवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International ५. एक करोड़ की सुरक्षा निधि / समिति गठन एक करोड़ की सुरक्षा निधि के नाम पर भी लेखक ने समीक्षा की है। उसे माननीय न्यायालय की द्विधा/संशक मन का सूचक माना है। लेखक ने यहाँ भी सच्चाई के परे कथन किया। प्रथम तो एक करोड़ रु. की सुरक्षा निधि अदालत में जमा कराने का आदेश नहीं दिया मात्र प्रति-भृ (स्यूरटी) माँगी गयी ताकि मन्दिर निर्माण में यदि मूर्ति क्षतिग्रस्त हुई तो उसकी क्षति पूर्ति की जा सके। दूसरे, यह विश्वास या अविश्वास की सूचक न होकर मूर्ति को सुरक्षा हेतु जागरूकता का सूचक है। इस जागरूकता हेतु माननीय न्यायालय को 'संशक' बताना अज्ञानता का प्रदर्शन है । यही स्थिति निर्माण हेतु निष्पक्ष समिति बनाने की है। विवादग्रस्त स्थिति में किसी भी पक्षकार को सम्पत्ति का कब्जा नहीं दिया जाता। यह किसी भी पक्ष की अस्मिता को प्रश्न चिह्नित नहीं करता किन्तु देश में कानून के नियम (रूल ऑफ लॉ) की अवधारणा सिद्ध करता है। यह अपमान नहीं, कानूनी व्यवस्था का सम्मान है। कृपया भ्रमित न हों। जब कोई पक्षकार अपने अधिकार की रक्षा हेतु प्रयास करता है तब उसे कृतघ्न आदि कहना दुर्भावना सूचक है। इससे धर्म संस्कृति प्रश्न चिह्नित नहीं होती । धर्म संस्कृति तब प्रश्न चिह्नित होती है जब निहित अल्पस्वार्थ हेतु पूज्य आचार्य को कायर/छद्मवेषी कहा जाता है। गिद्ध दृष्टि हमारी हम पर ही लगी प्रतीत होती है, जैसा उक्त स्पष्टीकरण से ध्वनित हो रहा है। ६. मूर्ति का झुकाव एवं महामस्तकामिषेक श्री अजीत टोंग्या ने जैन गजट २/११/२००६ में पूरे एक पृष्ठ पर इस विषय में समीक्षा की है कि जब सन १९९० के भूकम्प मेंदीवालें क्षतिग्रस्त एवं मूर्ति तीन सेन्टीमीटर तक झुक गयी थी तब सन् २००१ में मूर्ति का महामस्तकाभिषेक कैसे किया गया? यह विरोधाभाषी कथन है । इस पर भी गम्भीरता से विचार किया । प्रश्न यह है कि मूर्ति के एक और झुकाव से क्या पूजा - भक्ति अभिषेक प्रभावित होंगे ? क्या इन कार्यों को बंद कर दें या उससे मूर्ति प्रभावित होगी? सामान्य समझ तो यही कहती है कि इन कार्यों के मर्यादित / सतर्कता पूर्वक करने से मूर्ति क्षीण नहीं होगी। महामस्तकाभिषेक दैनिक क्रिया नहीं है । वेदी का झुकाव क्षतिग्रस्तता का सूचक है, जो चिंतनीय है । ७. नवीन मन्दिर की भव्यता श्री टोंग्या ने निर्माणाधीन नये मन्दिर की भव्यता को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524314
Book TitleJinabhashita 2007 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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