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________________ नाग्न्यादिपरीषह-सहन श्रमण का लक्षण है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है सम सत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्टकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो॥3/41।। आज के श्रमणाभासों में इस लक्षण का अभाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। सर्वप्रथम मुनिधर्मोपदेश, किन्तु दीक्षा योग्यतानुरूप पुरुषार्थसिद्ध्युपाय (कारिका 17-19) में कहा गया है कि गृहस्थों के सामने सर्वप्रथम मुनिधर्म का ही कथन करना चाहिए। जब मुनिधर्म का वर्णन सुनकर भी गृहस्थ उसे ग्रहण करने में उत्साहित न हो, तभी गृहस्थधर्म का प्ररूपण करना उचित है। जो अल्पमति उपदेशक इस क्रम का भंग करता है, उसके लिए जिनमत में प्रायश्चित्त का विधान किया गया है, क्योंकि उक्त क्रम को भंग करने से अर्थात् पहले गृहस्थधर्म का कथन करने से मुनिधर्म के पालन में उत्साह रखनेवाला शिष्य भी अनुत्कृष्ट गृहस्थ-धर्म में सन्तुष्ट होकर उत्कृष्ट-मुनिधर्म से वंचित हो जायेगा। इस कथन से यह अभिप्राय नहीं लेना चाहिए कि मुनिधर्म ग्रहण करने के लिए उत्साहित शिष्य को उसकी योग्यता परखे बिना ही मुनिदीक्षा दे दी जानी चाहिए। बहुत से मनुष्य क्षणिक भावावेश में आकर अथवा ख्याति-पूजालाभादि की आकांक्षा के वशीभूत होकर अथवा दूसरों की देखादेखी उनकी बराबरी करने के लिए अथवा निराश्रित या जीवनयापन आदि की समस्या होने के कारण अथवा गुरुभक्ति या स्वामिभक्ति प्रदर्शित करने के उद्देश्य से स्वयोग्यता का विचार किये बिना ही मुनिदीक्षा के लिए उत्सुक हो जाते हैं। ऐसे पुरुषों को यदि दीक्षा दे दी जाती है, तो उनका वही हाल होता है, जो भगवान् ऋषभदेव के साथ दीक्षित हुए चार हजार राजाओं का हुआ था। उन्होंने मात्र स्वामिभत्ति प्रदर्शित करने के लिए धर्म के मर्म को जाने बिना और अपनी योग्यता का ख्याल किये बगैर मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली थी। किन्तु, परीषह न सह पाने के कारण मुनिपद से भ्रष्ट हो गये। (देखिए, आदिपुराण 17/212-214, 18/16, 4753) । इसलिए मुनिधर्म का कथन करने के बाद भी शिष्य की योग्यता परख कर ही दीक्षा दी जानी चाहिए, यह आगम का अभिप्राय है। आचार्य हरिषेणकृत 'बृहत्कथाकोश' के 'यशोधर-चन्द्रमती-कथानक' (क्र. 73) में बतलाया गया है कि दो राजकुमार सुदत्त मुनि से अपने पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर विरक्त हो जाते हैं और उनसे मुनिदीक्षा की याचना करते हैं। सुदत्त मुनि उनसे कहते हैं- "आप लोगों के अंग सुकुमार हैं। उन्हें परीषह सहने का अभ्यास नहीं है। इससिलए अभी आप मुनिव्रत का पालन नहीं कर पायेंगे। इस समय आप लोगों को क्षुल्लकधर्म का सेवन करना चाहिए, मुनिदीक्षा बाद में दूँगा।" देखिए युवां सुकुमाराङ्गावनध्यासितपरीषहौ। शक्नुथो न व्रतं जैनं ग्रहीतुं मुग्धचेतसौ।। 238 ।। विधातुमधुना युक्तं धर्मं क्षुल्लकसेवितम्। चरमं युवयोर्दास्ये धर्म दैगम्बरं परम् ॥ 239॥ दोनों राजकुमार मुनिवर की आज्ञा स्वीकार कर लेते हैं। पहले वे क्षुल्लक बनकर परीषह-सहन का अभ्यास करते हैं और जब परीषहजय में निष्णात हो जाते हैं, तब सुदत्त मुनि उन्हें मुनिदीक्षा दे देते हैं। (वही/299)। यह इस बात का ज्वलन्त आगमप्रमाण है कि गृहस्थ को सर्वप्रथम मुनिधर्म का उपदेश देते हुए भी, मुनिधर्मपालन की योग्यता देखकर ही मुनिदीक्षा दी जानी चाहिए। मोक्षप्राप्ति भावश्रमणत्व और द्रव्यश्रमणत्व दोनों के योग से यद्यपि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को कथंचित् भाव श्रमण कहा गया है, तथापि यह ध्यान में रखने योग्य है कि मोक्ष की प्राप्ति न केवल भाव श्रमणत्व से होती है, न केवल द्रव्यश्रमणत्व से, अपितु दोनों के योग से होती है। इस तथ्य का निरूपण आचार्य कुन्दकुन्द ने 'भावपाहुड' की पूर्वोद्धृत 54 वीं गाथा 'भावेण होइ नग्गो' में किया है। रतनचन्द्र जैन जनवरी 2007 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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