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रयणसार के रचयिता कौन?
पं. बंशीधर शास्त्री, एम. ए. मुस्लिम शासनकाल में भारत में ऐसी परिस्थितियाँ । विद्वानों के मत उद्धृत करना आवश्यक समझता हूँ। हो गई थीं, जिनके कारण दिगम्बरजैन साधु नग्न नहीं रह | स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्याय ने प्रवचनसार की भूमिका सके और इन्हें वस्त्र धारण करने पड़े। ऐसे वस्त्रधारी साधु | में इस प्रकार लिखा हैभट्टारक कहलाते थे। प्रारम्भ में कतिपय भट्टारकों ने साहित्य
___ 'रयणसार' ग्रन्थ गाथा-विभेद, विचार-पुनरावृत्ति, संरक्षण एवं संस्कृति की परम्परा बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण
अपभ्रंश पद्यों की उपलब्धि, गणगच्छादि का उल्लेख और योगदान किया था। किन्तु वे वस्त्र, वाहन, द्रव्यादि रखते हुए | बेतरतीबी आदि को लिए हए जिस स्थिति में उपलब्ध है, भी अपने आपको साधु के रूप में ही पुजाते रहे। वे पीछी
उस पर से वह पूरा ग्रन्थ कुन्दकुन्द का नहीं कहा जा सकता। कमण्डल भी रखते थे। चूँकि दिगम्बरपरम्परा में वस्त्रधारी
कुछ अतिरिक्त गाथाओं की मिलावट ने उसके मूल में गड़बड़ व परिग्रहधारी को साधु नहीं माना जा सकता, इसलिए इन
उपस्थित कर दी है और इसलिए जब तक कुछ दूसरे प्रमाण भट्टारकों ने अधिकांश साहित्य, जो कि उस समय हस्तलिखित
उपलब्ध न हो जायँ, तब तक यह विचाराधीन ही रहेगा कि होने के कारण अल्प संख्या में ही था, अपने कब्जे में कर
कुन्दकुन्द इस रयणसार के कर्ता हैं। लिया। इन भट्टारकों ने प्रमुख केन्द्रों में अपने-अपने मठ
पुरातन ग्रन्थों के पारखी स्व. पं. जुगलकिशोर जी बना लिए, विभिन्न प्रकार से श्रावकों से धन संचय करने
मुख्तार का रयणसार के सम्बन्ध में निम्न मत हैलगे और उन श्रावक-श्राविकाओं को शास्त्रों और आगमपरम्परा
"यह ग्रन्थ अभी बहुत कुछ संदिग्ध स्थिति में स्थित से दूर रखा। उन्होंने धर्म के नाम पर मंत्रतंत्रादि का लोभ या डर
है। जिस रूप में अपने को प्राप्त हुआ है, उस पर से न तो दिखाकर कई ऐसी प्रवृत्तियाँ चलाईं, जो दिगम्बरजैन आगम के अनुकूल नहीं थीं। इन्होंने प्राचीन साहित्य अपने अधिकार
| इसकी ठीक पद्यसंख्या ही निर्धारित की जा सकती है और में कर लिया और नवीन साहित्य निर्माण करने लगे वह भी | न इसके पूर्णत: मूल रूप का ही पता चलता है। ग्रन्थप्रतियों कभी-कभी प्राचीन आचार्यों के नाम पर, ताकि लोग उन्हें
में पद्यसंख्या और उनके क्रम का बहुत बड़ा भेद पाया जाता प्रामाणिक समझकर उन प्रवृत्तियों का विरोध नहीं करें। ऐसे
है। कुछ अपभ्रंश भाषा के पद्य भी इन प्रतियों में उपलब्ध नवनिर्मित साहित्य द्वारा उन नवीन प्रवृत्तियों का समर्थन
हैं। एक दोहा भी गाथाओं के मध्य में आ घसा है। विचारों किया गया। इन्होंने त्रिवर्णाचार. सर्यप्रकाश. चर्चासागर. | की पुनरावृत्ति के साथ कुछ बेतरतीबी भी देखी जाती है, उमास्वामी-श्रावकाचार आदि आगमविरुद्ध ग्रन्थों का निर्माण | गण गच्छादि के उल्लेख भी मिलते हैं, ये सब बातें कुन्दकुन्द किया था। स्व.पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार, पं. परमेष्ठीदास के ग्रंथों की प्रवृत्ति के साथ संगत मालूम नहीं होती, मेल जी जैसे विद्वानों ने इनकी समीक्षा कर स्थिति स्पष्ट कर दी | नहीं खातीं।" (पुरातन जैनवाक्य सूची-प्रस्तावना)।
__स्व. डॉ. हीरालाल जी जैन ने अपने भारतीय संस्कृति यह ठीक है कि आगरा-जयपुर के विद्वानों द्वारा ज्ञान | में जैन धर्म का योगदान' शीर्षक ग्रंथ में रयणसार के सम्बन्ध के सतत प्रसार से उत्तर भारत में इन भट्टारकों का अस्तित्व में इस प्रकार लिखा हैसमाप्तप्रायः हो गया है, फिर भी कुछ भाई, जिनमें विद्वान् एवं "इसमें एक दोहा व छः पद अपभ्रंश भाषा में पाये त्यागी भी हैं, फिर भट्टारकपरम्परा को प्रोत्साहन देना चाहते हैं | | जाते हैं । या तो ये प्रक्षिप्त हैं या फिर यह रचना कुन्दकुन्दकृत और उन भट्टारकों द्वारा रचित ग्रन्थों का प्रचार करते हैं। न होकर उत्तरकालीन लेखक की कृति है, गण, गच्छ आदि
ऐसे ग्रन्थों में 'रयणसार' भी एक है। यद्यपि इसे | के उल्लेख भी उसको अपेक्षाकृत पीछे की रचना सिद्ध आचार्य कन्दकन्द द्वारा विरचित बताया जाता है, किन्तु इस | करते हैं।"(प १०)। ग्रन्थ की परीक्षा करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ | श्री गोपालदास जीवाभाई पटेल ने 'कुन्दकुन्दाचार्य अपने वर्तमानरूप में कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित नहीं हो सकता। के तीन रत्न' शीर्षक पुस्तक में रयणसार के सम्बन्ध में निम्न अपने विचार प्रस्तुत करने से पूर्व मैं कतिपय साहित्यमर्मज्ञ | मत प्रस्तुत किया है
8 जनवरी 2007 जिनभाषित
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