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________________ बात है कि उनके प्रवचनों को कोई सहज ही रिकार्ड कर | को उचित कैसे कहा जा सकता है?" हम सभी विस्मित हुए ले। खैर, महाप्रज्ञ जी प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे और आदतन | कि यदि चटपटी चर्चा नहीं हुई और संथारा आध्यात्मिक तप ऐंकर महोदय थोड़ी ही देर में अपनी औकात पर आकर | की वीरता ही बहस में सिद्ध हुआ है, आत्महत्या नहीं, तो उन्हें छेड़ने लगे, फिर भी आचार्य श्री विचलित हुये बिना, | जबरन इस मुद्दे को विवादित बनाना क्या आवश्यक है? जवाब देते रहे और हमें लगा कि ऐंकर जी संतुष्ट हो गये। मात्र इसलिये कि अहिंसक जैन आपके साथ बलवा, हम श्रोतागण भी संथारा पर हुए इस सवाल-जवाब | तोड़-फोड़ नहीं करते, तो उन्हें अनावश्यक आहत किया से प्रभावित हुए थे। पर इससे ऐंकर को लगा कि मात्र संतोष | जाता रहे? वरना इसका मजा तो तब मालूम पड़े, जब किसी कैसे बिकेगा चैनल पर? अतः वह अपनी ही तरफ से | अन्य कट्टर कौम को इस तरह छेड़ा जाय। बोलने लगा- "मुनिवर ने समाधान तो किया, पर ऐसी मौत | 75, चित्रगुप्त नगर, कोटरा, भोपाल समाधि-भक्ति (प्रिय भक्ति) मुनि श्री सुव्रतसागर जी नित आतम संवेदन मय प्रभु, श्रुत-नयनों से मैं लखकर। केवलज्ञान-चक्षु से मण्डित, देख रहा हूँ अब जिनवर॥1॥ सदा शास्त्र अभ्यास करूँ मैं, सन्त समागम प्रभुवंदन। सज्जन के गुणगान करूँ अरु, दोष-कथन में मौन-वचन ॥2॥ सबसे हित-मित प्रिय मैं बोलूँ, आत्मतत्त्व को नित ध्याऊँ। जब तक मुझको मिले मोक्ष ना, भव-भव में बस ये पाऊँ।। 3॥ जिन-पथरुचि हो पर से विरक्ति, निर्मल जिनवाणी ध्याऊँ। रहे भावना जिनगुणथुति में, जनम-जनम में यह पाऊँ॥4॥ चैत्य, घोष-सिद्धांत-सिंधु हो, यति समूह गुरु-चरण जहाँ। हो संन्याससहित नित मेरा, जनम-जनम में मरण वहाँ॥5॥ जनम करोड़ों में संचित, जो जनम-जरा-मृति का कारण। किये पाप जो जनम-जनम में, जिन वन्दन से हों वारण।।6।। सेवक जन को कल्पवेलसम, श्रीजिनपद की कर सेवा। बाल-दशा से अब तक बीता, मम जीवन हे जिनदेवा।।7। अब उसका फल यह चाहूँ मैं, मरण-समय मेरा जब हो। कण्ठ आपके नाम-शब्द के पढ़ने में अवरुद्ध न हो॥8॥ जब तक मैं निर्वाण न पाऊँ, तब तक जिनवर यह रटना। तब चरणों में मम हिय थित हो, मेरे हिय में तव चरणा॥9॥ जिन-भक्ती ही जिन-भक्तों की, दुर्गति हरनेवाली है। पुण्य-पूर्ण दे, मुक्ति रमा दे, यह सबसे बलशाली है। 10॥ शेष अगले पृष्ठ पर जनवरी 2007 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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