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________________ सल्लेखना : अंतिम अवस्था में आत्मशोधन का तप कैलाश मड़वैया मृत्यु के पूर्व आत्मा पर चढ़े सांसारिक मैल को। संभव नहीं होता, इसलिये जीवन की अंतिम अवस्था में मन तपाकर परिमार्जित करने को संथारा धर्म कहते है। पर क्या को निर्मल बना. वीतराग होने के प्रयास किये जायें। जैनधर्म मौज है कि इन दिनों हजारों वर्ष प्राचीन भारतीय संस्कृति की | में जीवन के अंतिम समय की इस तपस्या को दिगम्बर उस गौरव-परम्परा पर ही विवाद हो रहा है (संवाद नहीं), | सल्लेखनापूर्ण समाधि लेना और श्वेताम्बर संथारा कहते हैं, जब कि इसका सीधा अर्थ होता है जीवन की अंतिम अवस्था जो वस्तुतः जीवन की तरह मृत्यु की एक सम्यक् कला है। में, वीतरागी बन, तप:रत हो, आत्मशोधन करना और निर्विकार | यह ज्ञानपूर्वक किसी सक्षम गुरु से दीक्षा लेकर व्रत / संकल्प हो समाधिस्थ होना। यह न असमय मृत्यु है, न आत्महत्या, | के साथ सम्पन्न की जाती है। इसमें गुरु की आज्ञानुसार क वीरता है, जो हर एक को बिना विवेक।। आहार-जल का क्रमश: त्याग किया जाता है तप के संभव भी नहीं होती। समाधि की इस आध्यात्मिक | . यह आवश्यक नहीं कि संथारा में मृत्यु तुरन्त हो प्रक्रिया में दरअसल कहीं आवेश या राग-द्वेष को जगह नहीं | जाये। जीवन चलता रहता है साधना में, ज्ञानानन्द में! अतः होती, पर इसकी तुलना इन दिनों सतीप्रथा और आत्महत्या | इसकी तुलना आत्महत्या या सतीप्रथा से नहीं की जा सकती। से की जा रही है, जब कि सतीप्रथा में पति से राग के | अब आप कह सकते हैं कि संथारा का अंत तो मृत्यु से ही भावावेश में, आग में कष्टपूर्वक तुरन्त मरने का निर्णय लिया | होता है, तो यह बतायें कि किस जीवन का अंत मृत्यु से नहीं जाता है और आत्महत्या में जीवन से द्वेष या नफरत होने के | होता है? जब सैनिक युद्ध में लड़ता है, तो वह भी मृत्यु को कारण हताश होकर असमय, तड़प कर जीवन खोया जाता | ही गले लगाता है, पर उसे शहीद कहते हैं, फिर संथारा में है। पर संथारा या समाधिमरण बिल्कुल दूसरी बात है, इसका | भी तो श्रावक, जीवन-संग्राम में रत रहता है, तो उसे आत्मघात आधार आवेश है ही नहीं, इसमें राग-द्वेष किंचित् भी नहीं | क्यों कहा जायेगा? अतः समाधिमरण जीवन के अंतिम होता, यह तो स्वतः आयी हुई मृत्यु का विवेकपूर्वक, तप:रत | समय में आनन्द और विवेक से आत्मशोधनपूर्ण सम्यक् हो वरण मात्र है। इसमें मौत की कामना नहीं होती, जीवन | समाधि है। का मोह त्यागा जाता है। यह निश्चित करना कि लक्ष्यप्राप्ति महाराजा भर्तृहरि, स्वामी रामतीर्थ, आचार्य बिनोवा के लिये हमें किस मार्ग से जाना है, प्रत्येक आत्मा का | भावे आदि ने ऐसी ही सल्लेखना द्वारा समाधि ली थी। स्वयं अधिकार है। मझे दखी होकर मत्यवरण करना है? या | महात्मा गाँधी ऐसे तप का समर्थन करते थे। यह अलग बात सम्यक्ज्ञान से आनन्दित हो आत्मशोधन कर महाप्रस्थान | है कि उन्हें ऐसे प्रयोग का अवसर नहीं मिला। करना है, जिससे पर भव भी सुखमय हो? यह निर्णय करना पर देखिये, इलैक्ट्रानिक मीडिया पर कैसे इन दिनों आत्मा का अधिकार है। क्या यह सच नहीं है कि हम दो- सल्लेखना की बखिया उधेड़ी जा रही है। लोकतंत्र में विचारों चार दिन की यात्रा के लिये निकलते हैं, तो पूर्ण तैयारी करते | की अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता जितनी सराहनीय है, उतनी ही हैं, फिर मृत्यु तो महाप्रस्थान है, क्या इसकी समुचित तैयारी | आलोच्य हो जाती है, जब वह व्यावसायिक और पूर्वाग्रहग्रस्त हमें नहीं करनी चाहिए? मृत्यु तो जन्म की तरह अवश्यंभावी | हो। किसी की समीक्षा उचित हो सकती है, पर गाली देना है। पर, जैनधर्म में जीवन की तरह मृत्यु की कला भी | अपराध है। किसी की धार्मिक भावनाओं को अकारण आहत सिखाई जाती है। यदि पुनर्जन्म मान्य है, तो विज्ञान भी | करना भी उचित नहीं कहा जा सकता है। एक चैनल पर सहमत है कि मृत्यु के समय में बने संस्कार या विचार दूसरे | कुछ दिन पहले संथारा पर जैन संत आचार्य महाप्रज्ञ का जन्म में, जींस के द्वारा मात्र स्थानातंरित होते हैं। अतः सभी | साक्षात्कार चैनल के प्रमुख द्वारा ही लिया जा रहा था। यह चाहते हैं कि मृत्यु के समय विवेकपूर्ण निर्मल भाव रहें। पर तो शुक्र था कि महाप्रज्ञ महाराज इण्टरव्यू देने को तैयार हो यह सहज तो नहीं होता। इसके लिये या तो सम्पूर्ण मनुष्यजीवन | गये, क्योंकि सामान्यत: जैन संत प्रचार-प्रसार से दूर, किसी सत्कार्यों में जिया जाये, जो वर्तमान परिस्थितियों में प्रायः । अनावश्यक वाद-विवाद में कभी नहीं पड़ते। यह अलग 18 जनवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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