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________________ और संस्कारित हो । यदि ऐसा नहीं है, तो उनका गुह्यांग दृष्टिगोचर होने पर भी कामोद्दीपन नहीं हो सकता। यह भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि नग्न शरीर शोभायमान नहीं होता, वह अशोभनीय लगता है, इसलिए स्त्री और पुरुष शरीर को वस्त्राभूषणों से अलंकृत करते हैं। स्त्रियों को तो सोलह शृंगार करना पड़ता है। और आजकल तो ब्यूटी-पार्लर में जाये बिना उनका सौन्दर्य निखर नहीं पाता। यतः नग्न शरीर स्वभावतः शोभनीय नहीं लगता और स्नान, संस्कार आदि न करने से मुनियों का शरीर मलिन हो जाता है, दाँत भी पीले हो जाते हैं, केशलोच करने से सिर और दाढ़ी के बाल भी बेतरतीब उगते हैं, इससे उनके शरीर की अशोभनीयता बढ़ जाती है। यहाँ तक कि वह ग्लानि-जनक भी हो जाता है, इसीलिए श्रावकों को "मनितन मलिन न देख घिनावे" यह उपदेश दिया गया है। मनियों के मलिन शरीर से घणा न करना सम्यग्दर्शन का 'निर्विचिकित्सा' नामक गुण माना गया है। दिगम्बरमुनि के ऐसे शरीर से किसी स्त्री में कामोद्दीपन होना तो दूर, किसी अन्य प्रकार से कामोद्दीप्त हुई स्त्री यदि ऐसे मुनि के दर्शन कर ले, तो उसका उद्दीप्त काम काफूर हो जायेगा, उलटे पैर भागेगा । श्वेताम्बरग्रन्थ प्रवचनपरीक्षा' में बोटिक शिवभूति की कथा आयी है। वह श्वेताम्बर साधु बन जाता है, किन्तु कुछ समय बाद श्वेताम्बर-सम्प्रदाय छोड़कर दैगम्बरी दीक्षा ले लेता है। उसे देखकर उसकी बहिन उत्तरा भी साध्वी बनने के लिए वस्त्र त्याग कर नग्न हो जाती है। जब वह नगर में जाती है, तो एक वेश्या की दृष्टि उस पर पड़ती है। वह सोचती है कि स्त्री नग्न होने पर बड़ी बीभत्स लगती है। यदि कामुक पुरुष इसे इस स्थिति में देख लें तो उन्हें स्त्री-शरीर से घृणा हो जायेगी और वे मेरे पास आना छोड़ देंगे, जिससे मेरा धन्धा चौपट हो जायेगा। यह सोचकर वह उत्तरा के नग्न शरीर पर एक वस्त्र डाल देती है। उत्तरा भी उसे स्वीकार कर लेती है। यह कथा इस तथ्य को उजागर करती है कि स्त्री हो या पुरुष, उसका शरीर वस्त्रावृत होने पर ही शोभायमान होता है, निर्वस्त्र होने पर नहीं। अतः दिगम्बर मुनि का शरीर आकर्षणहीन होने से कामोद्दीपन में समर्थ नहीं है। सन्तदृष्टि से अवलोकन कामविकार का जनक नहीं यह भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि किसी वस्तु को देखने-छूने से हमारे मन में क्या भाव उत्पन्न होगा, यह हमारी दृष्टि या भावना पर निर्भर होता है। एक नीतिज्ञ ने कहा है __ मनः कृतं कृतं मन्ये न शरीरकृतं कृतम्। येनैवालिङ्गिता कान्ता तेनैवालिङ्गिता सुता॥ अर्थात् मन से किया गया कार्य ही यथार्थ होता है, शरीर से किया गया नहीं। जिस शरीर से पत्नी का आलिंगन किया जाता है, उसी से पुत्री का भी किया जाता है। तात्पर्य यह कि पत्नी भी स्त्री होती है और पुत्री भी, किन्तु पत्नी के प्रति पत्नीरूप भावना (ऐसी स्त्री होने की भावना जिसके साथ काम-व्यवहार पाप नहीं है) होती है और पुत्री के प्रति पुत्रीरूप भावना (ऐसी स्त्री होने की भावना, जिसके साथ काम-व्यवहार पाप है) होती है। इसलिए पत्नी का आलिंगन पत्नीभाव से किया जाता है, अत: उस आलिंगन से मन में कामभाव उत्पन्न होता है, किन्तु पुत्री का आलिंगन (गले लगाना) पुत्रीभाव से किया जाता है, अतः उस आलिंगन से कामभाव उत्पन्न नहीं होता। दुनिया के पिछड़े से पिछड़े समाज में भी माता को माता की दृष्टि से, पिता को पिता की दृष्टि से , बहिन को बहिन की दृष्टि से, भाई को भाई की दृष्टि से, बेटी को बेटी की दृष्टि से और बेटे को बेटे की दृष्टि से देखने के संस्कार परम्परा से प्राप्त होते हैं, इसीलिए पारिवारिक और धार्मिक नैतिकता कायम रहती है। और समाज के अन्य स्त्री-पुरुषों को उनकी उम्र के अनुसार माता-पिता, भाई-बहिन और पुत्र-पुत्री की दृष्टि से देखने का उपदेश दिया जाता है। इसी बजह से सामाजिक और धार्मिक नैतिकता कायम रहती है। इसी प्रकार साधुसन्तों को भी साधु-सन्तों की दृष्टि से देखने पर अनैतिक भाव की उत्पत्ति के लिए अवकाश नहीं रहता। यतः दिगम्बरजैन मुनियों के प्रति प्रायः सभी स्त्रियों के मन में सन्तभावना विद्यमान होती है, इसलिए इस भावना के साथ उनके दर्शन करने से उनके मन में न कामभाव उत्पन्न होता है, न ग्लानिभाव। तथा सन्तभावना से दर्शन करते हुए भी 6 दिसम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524312
Book TitleJinabhashita 2006 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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