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संतो की आड़ में आत्मघाती खेल न खेलें
डॉ.राजेन्द्रकुमार बंसल, अमलाई श्रीमान् अजीत टोंग्या, बड़नगर द्वारा प्रेषित ‘कुण्डलपुर | विद्यमानता को प्रकाशित करता है। यही कारण है कि समन्वयकोहराम और आचार्य शांतिसागर जी महाराज (पूर्वार्द्ध)' | वाणी के सम्पादक ने विद्यमान प्रकरण में विद्वान् विचारकों प्राप्त हुआ। आद्योपान्त पढ़ने के बाद लेखक की मूल | एवं जन सामान्य आदि के अपने निजी विचारों को समन्वयभावनानुसार यह संकलन-प्रकाशन जैन समाज के कोहराम | वाणी में प्रकाशित किए तटस्थ भाव से, किन्तु न्यायिक के जनक के रूप में अनुभूत हुआ। अतः न चाहकर भी | प्रक्रिया से जुड़े बिन्दुओं के औचित्य पर अपना कोई निर्णय लिखने का सहज भाव आया। इस लेखन के पूर्व दो पत्र | व्यक्त नहीं किया और न ही किसी पक्षकार को झूठा, महाझूठा, सम्माननीय श्री टोंग्या जी को भी लिखे जिनका प्रतिउत्तर डाक्टर डाकू, ठगी ठग, मूढ़ता अपलाप, इस सत्य महाव्रती अभी तक नहीं मिला। यह भी लिखा कि यदि छद्म नाम जेसे हीन/ अभद्र शब्दों का ही प्रयोग किया, जबकि अन्य नहीं होगा, तो प्रतिउत्तर अवश्य आयेगा।
एक पंथ विशेष को समर्पित सम्पादकों ने अपने दोहरे मुखोटे कुण्डलपुर बड़े बाबा के जीर्ण पुराने मंदिर से नव | दर्शाकर अपने विवादित और मलिन सोच से समाज को निर्माणाधीन मंदिर में विराजित होने के औचित्य पर लेखक | गुमराह किया और अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास को कुछ भी नहीं करना है, क्योंकि सम्पूर्ण प्रकरण माननीय
किया। उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है और जब माननीय विद्वान् श्री अजीत टोंग्या ने कुण्डलपुर कोहराम में सर्वोच्च न्यायालय ने अंतिम निर्णय के पर्व हस्तक्षेप से | निम्न बिन्दुओं को उछाला है- पहला पुरातत्त्व के संरक्षण इंकार कर दिया हो, तो कोई भी होता कौन है उस बिन्दु पर | की आड़ में तेरहपंथ और बीसपंथ के बिन्दु के आधार पर अपने विचार व्यक्त करे या न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप | समाज को अनिश्चित काल तक के लिए विग्रह-विद्वेष की करे। प्रजातंत्र की इस मर्यादा से सभी परिचित हैं। इसके | आग में झोंकना और दूसरा विद्यमान श्रमण संस्था के एक उपरान्त भी यदि कोई कुछ करता है, तो वह स्वेच्छाचारी, | प्रभावी आगमनिष्ठ आचार्य और उसके विशाल संघ को अमर्यादित व्यवहार ही होगा।
शेष श्रमण धारा से पृथक् करना, तीसरा देश के कानून की __विद्वान् लेखक श्री अजीत टोंग्या जी ने चारित्रचक्रवर्ती | | आड़ में समूची जैन समाज की निन्दा करना और उसे कानून आचार्यश्री शांतिसागर जी के परिप्रेक्ष्य में कुण्डलपुर-कोहराम | हंता के रूप में प्रस्तुत करना, चौथे पुरातत्त्व की आड़ में के रूप में अपने विचार व्यक्त किए। इस संबंध में यह | यक्ष-यक्षी की मूर्तियों को लेकर तेरहपंथ के स्थानों/मंदिरों स्मरणीय है कि यदि पूज्य आचार्यश्री होते या उनकी कार्य | को बीसपंथ का घोषित करवाने की साजिश/कूट रचना पद्धति/कार्यशैली का अनुसरण करनेवाला सच्चा भक्त होता, | करना। यह सर्वविदित है कि भट्टारकों की गद्दी या यक्षतो कुण्डलपुर-कोहराम लिखा ही नहीं जाता। वह न्यायिक | यक्षी की विद्यमानता बीसपंथ के अस्तित्व की सूचक नहीं मर्यादा का पालन करते हुए माननीय उच्च न्यायालय के | होती। विद्वान् लेखक और उसके समर्थक अपने उद्देश्य की निर्णय की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता, जैसा कि आचार्यश्री | पूर्ति में कहाँ तक सफल होते हैं, यह तो समय ही बताएगा शांतिसागर जी ने हरिजन-मंदिर-प्रवेश के प्रकरण में किया | किन्तु, यहाँ विचारणीय मुद्दा यह है कि कुण्डलपुर कोहराम था। वे स्वयं न्यायाधीश नहीं बने। उनके द्वारा अन्नाहार का | के प्रायोजकों को ये काम अपनी दम खम पर करने चाहिए त्याग उनकी आत्मशोधन की प्रक्रिया का अंग था, निमित्त | थे। इस उद्देश्य हेतु गृहत्यागी, आत्मसाधना में संलग्न आचार्य/ न्याय प्राप्ति की भावना थी।
मुनिराज भगवंतों की प्रतिष्ठा को दाव पर नहीं लगाना चाहिए जीर्ण मंदिर का ध्वंस, नव मंदिर का निर्माण, स्थगन | था। आदेश की अवमानना, स्वत्व का स्वरूप, वैध-अवैध कार्य कहा गया है कि श्रवणबेलगोला में उपस्थित 225 'का निर्णय आदि बिन्दु माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष | संतों ने इस बात की भर्त्सना की, जिसमें आचार्य श्री निर्णय हेतु विचाराधीन हैं। इन बिन्दुओं पर टिप्पणी करना | वर्द्धमानसागर जी, आचार्यश्री पद्मनन्दीजी सम्मिलित थे। निश्चित ही न्यायिक प्रक्रिया पर अविश्वास तो है ही, मलिन | कारण यह है कि उन्हें अंधेरे में रखा गया। लेखक की यह मनोवृत्ति के प्रदर्शन का भी सूचक है, जो पक्षपात की | घोषणा या कथन निश्चित ही किसी वीतरागी संत के बारे में
दिसम्बर 2006 जिनभाषित 27
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