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________________ परम्परा को शुद्धाम्नाय कहते हैं, तो अशुद्ध परम्परा को क्यों । करते। वे तो मंदिर में यदि कहीं वास्तु आदि का दोष होता नहीं छोड़ देते? जलाभिषेक या पंचामृताभिषेक, फल-फूल है, तो मंदिर को निर्दोष बनाने की प्रेरणा देते हैं। वास्तु आदि से पूजा या बादाम, लोंग, पीले चावल से पूजा हो, यदि शुद्ध के दोष हटने पर मंदिर की शोभा में अतिशय वृद्धि हो जाती है आम्नाय माननेवाले जलाभिषेक करते हैं या अचित्त द्रव्य से और भक्तों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि देखी जाती है। पूजा करते हैं, तो क्या यह आगमविरुद्ध है? क्या चा.च.आ. | आप जरा साँगानेर, चाँदखेड़ी, बिजौलिया जाकर तो देखें, ये श्री शांतिसागरजी ने जलाभिषेक को मना किया है? बादाम, | क्षेत्र इतने सुंदर और भव्य हो गये हैं कि पहचानने में ही नहीं पीले चावल, लोंग से पूजा करने से नवधा भक्ति नहीं मानी | आते। कुंडलपुर के बड़े बाबा की मूर्ति का, जो अब नये है? यदि ऐसा नहीं है, तब यह फलतू झगड़ा क्यों? शुद्धाम्नाय | मंदिर की वेदी पर रखी जा चुकी है, जरा आप एक बार माननेवाले अचित्त पूजा करते हैं, तो वास्तव में हिंसा कम | दर्शन तो करें, आप गद्गद् हो जायेंगे और दिल से सराहना होने से सचित्त पूजा करने वालों से श्रेष्ठ ही हैं। फिर उनका | करने लगेंगे। यह तो सनातन परम्परा है कि पुराने मंदिरों का विरोध क्यों? जीर्णोद्धार हमेशा से होता आया है और होता रहेगा। यह 5. यह आरोप भी बिलकुल गलत है कि वे धरणेन्द्र, | आपने बिलकुल गलत लिखा है कि उस मूर्ति के अगलपद्मावती आदि की मूर्ति हटवाते हैं। पू. आचार्य श्री कई बार | बगल में स्थित यक्ष-यक्षिणी को काटकर रख दिया गया है। कुंडलपुर एवं रामटेक आदि स्थानों पर गये और उन क्षेत्रों | ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। सारी मूर्तियाँ सुरक्षित हैं, वे उचित पर आज भी क्षेत्रपाल आदि यथायोग्य स्थान पर स्थित हैं। स्थान पर विराजमान होंगी। आपने सफेद झूठ बोलकर लोगों जब आचार्य कुंथुसागर जी एवं आर्यिका सुपार्श्वमती जी | को गुमराह करने का जो अपराध किया है, वह अक्षम्य है। अपने प्रवचनों में क्षेत्रपाल आदि को द्वारपाल मानते हैं, तो 8. 'धर्ममंगल' पत्रिका को अपशब्द मत कहिए, मत फिर क्या इन देवी-देवताओं की अष्टद्रव्य से पूजा करना, | कोसिए। उसके उपकार को याद कीजिए। इस पत्रिका को आरती उतारना या भगवान् के समकक्ष विराजमान करना | कोई पा नहीं सकता। इस पत्रिका ने सच पूछो तो जैन समाज गृहीत मिथ्यात्व नहीं है? पूज्य आचार्य विद्यासागर जी ने | पर बड़ा उपकार किया है, जो इतने बड़े-बड़े आचार्यों तक के कभी भी अपने प्रवचन आदि में क्षेत्रपाल, पद्मावती की मूर्ति | शिथिलाचारों को स्पष्ट करने का सा हटाने की बात नहीं कही। हाँ, इतना अवश्य है कि इनको | पत्रिका के संचालन के लिए कोटिशः धन्यवाद देता हूँ और याग्य स्थान पर विराजमान करने का उपदेश देते हैं, जो प्रभु से कामना करता हूँ कि वे शतायुषी हों। इस पत्रिका ने सर्वथा उचित है। अतः इस संबंध में वे कछ भी गलत नहीं कभी भी गलत आरोप नहीं लगाये। आप कोई उदाहरण तो करते। दें। यह तो आचार्य पूज्य शांतिसागर जी का बहुत गुणगान 6. पूज्य आचार्य विद्यासागरजी या उनके संघस्थ साधु करने वाली पत्रिका है। आपके द्वारा लिखे शब्दों का कभी प्रयोग नहीं करते। उनका 9. जहाँ तक आर्यिकाओं का प्रश्न है, वे यथायोग्य हमेशा यही कहना होता है कि भट्टारक क्षेत्रों की अच्छी | वंदामि की पात्र हैं, पूज्य हैं। परन्तु उनकी निग्रंथ मुनियों के देखभाल कर सकते हैं। अत: 8 नहीं 108 बनें अथवा 1008 | समान साधु परमेष्ठी में गिनती नहीं हो सकती। इसलिए भी बन जायें, परंतु आगम के अनुसार इनके क्रियाकलाप | उनकी अष्टद्रव्य से पूजा करना वास्तव में आगमसम्मत नहीं का निर्धारण होना चाहिए। श्रवणबेलगोला-वाले भट्टारक है, उनकी सातभक्ति ही आगमसम्मत है। चारुकीर्ति जी ने स्वयं एक बार कहा था कि भट्टारकों के 10. आपका यह लिखना सर्वथा गलत है कि आचार्य एक भी प्रतिमा नहीं होती है और हमारी कोई आचार संहिता | श्री के शिष्य कभी भी महामस्तकाभिषेक में श्रवणबेलगोला भी नहीं है। इसीलिए तो पूज्य आचार्यश्री कहते हैं कि आपका | नहीं आये। आप शायद भूल गये कि इससे पिछले कार्य तो अच्छा है परंतु अवती होने पर भी पिच्छी धारण महामस्तकाभिषेक में 1993 में पूज्य मुनिश्री योगसागर जी क्यों? भट्टारकों के लिंग का निर्धारण ठीक होना चाहिए।'| आदि आचार्यश्री के शिष्य श्रवणबेलगोला पधारे थे। और इस प्रकार उनका कहना आगम के अनुसार सर्वथा उचित | इस वर्ष के महामस्तकाभिषेक में भी आर्यिका विज्ञानमति ही है। माताजी भी ससंघ पधारी थीं। ___7. आचार्य विद्यासागरजी महाराज या उनके शिष्य | 11. धामणी में समाधि कराने के लिए अपूर्वसागर आदि कहीं भी मंदिरों के मामले में कोई गलत काम नहीं | जी के गुरुभाई क्यों नहीं आये? इस पर विचार करने का -दिसम्बर 2006 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524312
Book TitleJinabhashita 2006 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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