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________________ भाव प्रत्याख्यानावरण कर्म के उदय से होता है, इसलिये । ध्यान रखना कि सम्यग्दर्शन भी औदयिक भाव हो जायेगा औदयिक है, तो मैं उन्हीं से पूछता हूँ कि किस आगम में | और आपके ही व्याख्यान से वह भी बन्ध का ही कारण लिखा है कि प्रत्याख्यानावरण कर्म के उदय से संयमासंयम | होगा, जो आपके लिये बहुत क्षोभकारक बात होगी। इसलिये भाव होता है? सच तो यह है कि प्रत्याख्यानावरणकर्म का | आगमिक परिभाषाओं को समझकर ही दूसरों को समझाना उदय सकल संयम का घात करने वाला है, न कि संयमासंयम श्रेयस्कर है। इस शुभभाव को श्री जयधवल नामक सिद्धान्त को उत्पन्न करने वाला। संयमासंयम की उत्पत्ति की प्रक्रिया | ग्रन्थ में कर्मक्षय का कारण बतलाते हुए लिखते हैं - तो वह है, जो ऊपर बतलायी गयी है। दूसरे यदि कर्म का | 'सुहसुद्धपरिणामेहिं कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो।' उदयमात्र होने से आप औदयिकभाव स्वीकार करते हैं, तो । (जयधवल/पु.1/पृ.5) उपाधि निर्मलता सागर में आचार्य महाराज के सान्निध्य में पहली । सागर के वर्णी भवन, मोराजी में आचार्य महाराज बार षटखण्डागम वाचना-शिविर आयोजित हुआ। सभी ने | के सान्निध्य में ग्रीष्मकालीन वाचना चल रही थी। गर्मी खूब रुचि ली। लगभग सभी वयोवृद्ध और मर्मज्ञ विद्वान् | पूरे जोर पर थी। नौ बजे तक इतनी कड़ी धूप हो जाती थी आए। जिन महान् ग्रन्थों को आज तक दूर से ही माथा | कि सड़क पर निकलना और नंगे पैर चलना मुश्किल हो झुकाकर अपनी श्रद्धा सभी ने व्यक्त की थी, आज उन जाता था। आहार-चर्या का यही समय था। आचार्य महाराज पवित्र ग्रन्थों को छूने, देखने, पढ़ने और सुनने का सौभाग्य आहार-चर्या के लिए प्रायः मोराजी भवन से बाहर निकल मिला। यह जीवन की अपूर्व उपलब्धि थी। कर शहर में चले जाते थे। मोराजी भवन में ठहरना बहुत वाचना की समापन बेला में सभी विद्वानों के परामर्श | कम हो पाता था। पं.पन्नालाल जी साहित्याचार्य का निवास से नगर के प्रतिष्ठित एवं प्रबुद्ध नागरिकों के एक प्रतिनिधि मण्डल ने आचार्य महाराज के श्री-चरणों में निवेदन किया मोराजी भवन में ही था और वे पड़गाहन के लिए रोज खड़े कि समूचे समाज की भावनाओं को देखते हुए आप'चारित्र होते थे। उनके यहाँ आहार का अवसर कभी-कभी आ चक्रवर्ती' पद को धारण करके हमें अनुगृहीत करें। सभी | पाता था। लोगों ने करतल ध्वनि के साथ अपना हर्ष व्यक्त किया। एक दिन जैसे ही दोपहर के सामायिक से पहले आचार्य महाराज मौन रहे। कोई प्रतिक्रिया तत्काल व्यक्त ईर्यापथ प्रतिक्रमण पूरा हुआ, पं. जी, आचार्य महाराज के नहीं की। चरणों में पहुँच गए और अत्यन्त सरलता और विनय से थोड़ी देर बाद आचार्य महाराज का प्रवचन प्रारम्भ सहज ही कह दिया कि 'महाराज जब ततूरी (कड़ी धूप से हआ और प्रवचन के अंत में उन्होंने कहा कि "पद-पद पर बहुपद मिलते हैं, पर वे दुख-पद आस्पद हैं। प्रेय यही जमीन गर्म होना) बहुत होने लगी है, आप चर्या के लिए बस एक निजी-पद, सकल गुणों का आस्पद है।" आप | दूर मत जाया करे।' सभी लोग उनका आशय समझ गए। सभी मुझे मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने दें और इन सभी पदों | आचार्य महाराज भी यह सुनते ही हँसने लगे। आज भी से मुक्त रखें। आप सभी के लिए मेरा यही आदेश, उपदेश | इस घटना की स्मृति से मन आचार्य महाराज के प्रति और संदेश है। अगाध श्रद्धा से झुक जाता है। उनके आचरण की निर्मलता सभा में सन्नाटा छा गया। सभी की आँखें पद के | और अगाध ज्ञान का ही यह प्रतिफल है कि विद्वान् जन प्रति आचार्य महाराज की नि:स्पृहता देखकर हर्ष व विस्मय | भी उनका सामीप्य पाने के लिए आतुर रहते हैं। से भीग गईं। सागर (1980) सागर (अप्रैल, 1980) मुनि श्री क्षमासागरकृत आत्मान्वेषी' से साभार 18 दिसम्बर 2006 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524312
Book TitleJinabhashita 2006 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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