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शुभभाव कर्मक्षय का कारण है
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मुनि श्री प्रणम्यसागर जी पू. आ. विद्यासागर जी महाराज के संघस्थ कोनी जी अतिशय क्षेत्र में शीतकाल के दौरान आचार्य श्री द्वारा अभिव्यक्त आगमोक्त चिन्तन शुभलेश्या, शुभ भाव और शुभ ध्यान को लेकर हमें । हैं । किन्तु ये सारी बातें मनगढन्त हैं, जिनका आगम से कोई सोचना है। लेश्याओं के विषय में सिद्धान्तग्रन्थों में चतुर्थ सरोकार नहीं है। किसी भी आचार्य प्रणीत आगम ग्रन्थ में गुणस्थान के बाद एकान्तरूप से शुभ लेश्या ही स्वीकृत है, मिश्र उपयोग का व्याख्यान नहीं है। एक साथ दो उपयोग अपवाद मात्र तत्त्वार्थसूत्र में पुलाक, वकुश आदि मुनियों की होना आगम विरुद्ध मान्यता है। जहाँ कहीं भी मिश्र भाव का लेश्या को लेकर आता है । प्रसंग में पंचम गुणस्थान को लें, कथन किया है वह क्षायोपशमिक एक भाव को लेकर कहा वहाँ शुभ लेश्या है, साथ ही साथ आर्तध्यान, रौद्रध्यान और है । वह क्षायोपशमिक भाव सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी धर्म्यध्यान भी गौणरूप से हैं। प्रश्न यह उठता है कि शुभ क्षय, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से तथा देशघाती स्पर्धकों लेश्या के साथ रौद्रध्यान कैसे सम्भव है? साथ ही भाव के उदय से होता है। इस आगमविरुद्ध मनमानी कल्पना का मार्गणा को भी देखें। सिद्धान्त में शुभ और अशुभ दो ही भाव उद्देश्य मात्र चतुर्थ गुणस्थान में ज्ञानधारा को सिद्ध करना है, मान्य हैं, शुद्ध भाव नहीं । यह शुद्धभाव अध्यात्मपद्धति में जिससे निर्जरातत्त्व की उपलब्धि बताकर व्रत-संयम आदि कथित है, जो उपयोग के विभाजन में शुद्धोपयोग नाम पाता से वंचित रखकर अपने मत को पुष्टि करना और देशसंयम है । अतः स्पष्टतया सिद्धान्त से शुभभाव ही पंचम गुणस्थान गुणस्थान में होने वाले क्षयोपशम (यानि मिश्र) भाव को में हुआ । उपर्युक्त प्रश्न ही आगे बढ़ता है और जिज्ञासा होती औदयिक सिद्ध करना है, क्योंकि औदयिक भाव बन्ध का है कि एक शुभभाव के साथ पंचम गुणस्थान में शुभ लेश्या कारण है। ऐसा व्याख्यान करने से कोई भी भोला-भाला तो घटित होती है, किन्तु रौद्रध्यान कैसे ? यतः रौद्रध्यान तो प्राणी व्रतसंयम से दूर रहकर ही भोगों को भोगते हुए 'ज्ञानधारा अशुभध्यान है और अशुभ भावों के अन्तर्गत आता है। तो ही कर्म बन्ध से बचाती है', ऐसा मानता हुआ मोक्षमार्गी हो आचार्य कहते हैं कि यह संयमासंयम गुणस्थान है यहाँ जाता है और इसे ही निश्चय मोक्षमार्ग कहकर व्यवहार संयम और असंयम दोनों एक साथ हैं। जितना त्याग किया, मोक्षमार्ग को नकार देते हैं । किन्तु यह नितान्त गलत है, उस संकल्प के प्रति आस्था और उसका पालन यह संयम है क्योंकि संयमासंयम भाव मात्र प्रत्याख्यानावरणी कर्म के और जितना रख रखा है उसके प्रति ममत्व, यह असंयम के उदय से नहीं, किन्तु उसके साथ अनंतानुबन्धी और लिये है । अथवा स हिंसा का त्याग है, इसलिये संयम भाव अप्रत्याख्यानावरणी कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी है और स्थावर हिंसा का त्याग नहीं कर सकता है, इसलिये क्षय और उन्हीं का सदवस्था रूप उपशम तथा संज्वलन के असंयम भाव है। यहाँ दो भाव नहीं हैं, भाव एक ही है । पाँच देशघाती स्पर्धकों का भी उदय होता है, तब कहीं जाकर भावों में से आचार्यों ने इस गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव एक क्षायोपशमिक भाव उत्पन्न होता है। यह क्षयोपशम भाव कहा है। यह क्षायोपशमिक भाव ही तत्त्वार्थसूत्र में मिश्र भाव आत्मा का प्रसाद है, विशुद्धि है, जो असंख्यातगुणी कर्मसे व्याख्यायित है । जितना संकल्प की रक्षा के लिये भाव है, निर्जरा का कारण है। इसके माध्यम से जब तक संयमासंयम वह शुभ भाव शुभ लेश्या का कारण है और बचे हुए परिग्रह गुणस्थान है, तब तक वह चाहे भोजन, शयन आदि कोई भी के प्रति रक्षण का ममत्व भाव भी शुभ भाव है, किन्तु रौद्र क्रिया करे, असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा का भाजक होता है। ध्यानात्मक है, है एक ही भाव, जो मिश्र भाव कहा जाता है। यह निर्जरा उसके संकल्प के कारण प्रतिसमय बनी रहती कोई दो भाव मिलाकर एक मिश्र भाव बना हो ऐसा नहीं है, जो असंयम दशा में कदापि संभव नहीं, मात्र सम्यग्दर्शन कोई दो उपयोग मिलाकर एक मिश्र दशा बनी हो ऐसा नहीं की उत्पत्ति के समय को छोड़कर । अतः इस सैद्धान्तिक है, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं जिस भाव से बन्ध होता है। व्याख्यान को छोड़कर किसी की भी कल्पित बात को मोक्षमार्ग वह अशुद्ध उपयोग है और जिससे निर्जरा होती है वह के प्रकाशक कहना, सम्यग्ज्ञान की किरण कहकर लोगों को शुद्धोपयोग है। ये दोनों उपयोग मिश्र रूप में साथ-साथ चलते फुसलाकर अपने पन्थ में शामिल करने के अलावा और हैं, जिसे क्रमश: कर्मधारा और ज्ञानधारा का प्रारूप भी बताते क्या अभिप्राय है? हमें समझ में नहीं आता। यदि संयमासंयम
दिसम्बर 2006 जिनभाषित 17
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